For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

मैं कितना झूठा था !!

कितनी सच्ची थी तुम , और मैं कितना झूठा था !!!

 

तुम्हे पसंद नहीं थी सांवली ख़ामोशी !

मैं चाहता कि बचा रहे मेरा सांवलापन चमकीले संक्रमण से !

तब रंगों का अर्थ न तुम जानती थी , न मैं !

 

एक गर्मी की छुट्टियों में -

तुम्हारी आँखों में उतर गया मेरा सांवला रंग !

मेरी चुप्पी थोड़ी तुम जैसी चटक रंग हो गई थी !

 

तुम गुलाबी फ्रोक पहने मेरा रंग अपनी हथेली में भर लेती !

मैं अपने सीने तक पहुँचते तुम्हारे माथे को सहलाता कह उठता -

कि अभी बच्ची हो !

तुम तुनक कर कोई स्टूल खोजने लगती !

 

तुम बड़ी होकर भी बच्ची ही रही , मैं कवि होने लगा !

तुम्हारी थकी-थकी हँसी मेरी बाँहों में सोई रहती रात भर !

मैं तुम्हारे बालों में शब्द पिरोता, माथे पर कविताएँ लिखता !

 

एक करवट में बिताई गई पवित्र रातों को -

सुबह उठते पूजाघर में छुपा आती तुम !

मैं उसे बिखेर देता अपनी डायरी के पन्नों पर !

 

आरती गाते हुए भी तुम्हारे चेहरे पर पसरा रहता लाल रंग

दीवारें कह उठतीं कि वो नहीं बदलेंगी अपना रंग तुम्हारे रंग से !

मैं खूब जोर-जोर पढता अभिसार की कविताएँ !

दीवारों का रंग और काला हो रोशनदान तक पसर जाता !

हमने तब जाना कि एक रंग “अँधेरा” भी होता है!

 

रात भर तुम्हारी आँखों से बहता रहता मेरा सांवलापन !

तुम सुबह-सुबह काजल लगा लेती कि छुपा रहे रात का रंग !

मैं फाड देता अपनी डायरी का एक पन्ना !

 

मेरा दिया सिन्दूर तुम चढ़ाती रही गांव के सत्ती चौरे पर !

तुम्हारी दी हुई कलम को तोड़ कर फेंक दिया मैंने !

उत्तरपुस्तिकाओं पर उसी कलम से पहला अक्षर टांकता था मैं !

मैंने स्वीकार कर लिया अनुत्तीर्ण होने का भय !

 

तुमने काजल लगाते हुए कहा कि मुझे याद करोगी तुम !

मैंने कहा कि मैं कभी नहीं लिखूंगा कविताएँ !

 

कितनी सच्ची थी तुम , और मैं कितना झूठा था !!!
.
.
.
...................................................................अरुन श्री !
.
मौलिक व अप्रकाशित

Views: 985

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Arun Sri on April 18, 2014 at 12:06pm

Saurabh Pandey  सर
//काश आता ही नहीं//

आपका महसूसना , आपकी शुभकामनाएँ !!!!!!!! कहाँ से पाई आपने इतनी संवेदनशीलता , इतनी सहृदयता ????

Comment by Arun Sri on April 18, 2014 at 12:00pm

  CHANDRA SHEKHAR PANDEY भाई , हम त मरहम के जोगाड़ में रहनी हं बाकी ई कविता से भेंट हो गइल ! ;-))))
आ पुरान घाव के छुअला पर दरद त होइबे करी ! बहुते नीक लागल राउर बतकही ! :-)))


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 17, 2014 at 12:28am

बहुत दिनों बाद इन पवित्र पंक्तियों पर आ पाया हूँ, भाई.
काश आता ही नहीं ! कमसेकम किन्हीं आँखो की साँवली बेसाख़्ता धार में उतराने को यों न छटपटाता होता, भाई. सीने तक आये सिर के उलझे-उलझे रेशमी धागों को अपनी थरथराती हुई उंगलियों से सुलझाने की कोशिश कितने ही झूठों द्वारा होती रही है. मगर वे रेशमी धागे क्या कभी सुलझे भी हैं ? फिर भी हुई ऐसी कोई कोशिश रोमांचित कर गयी.
तृणाग्र पर अटक गयी ओस-बूँद रात भर की अकथ पीड़ाओं की कहानी भले कहती दिखे, परन्तु प्रथम किरन की मुलायम छुअन सारा अर्जित अदबदा कर बहा देती है. 

ईश्वर सभी तृणाग्रों की बेसहारा बूँदों को ऐसी ही पहली-पहली किरन का नैसर्गिक सौभाग्य दे ! और इन्द्रधनुष व्यापे !
मन से कहा आपने.. दिल से सुना हमने !
शुभ-शुभ

Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on April 8, 2014 at 5:00pm
करेजा फाड़ देहलस ई रचना भाई जी। आज अकेले में पढ़निंह आ रउवा नियन महसूस करे के कोशिश कैनिहन । का बात बा। एक दम घाव करेजा के भीतर तक करत बा इ कविता। ढ़ेर कुले बधाई रउवा के साहेंब
Comment by Arun Sri on April 8, 2014 at 1:52pm

coontee mukerji मैम , सच कहूँ तो ये कविता लिखने में बहुत कम समय लगा बाकी हालिया कविताओं की अपेक्षा ! और आपको यही कविता सबसे अधिक पसंद आई ! बहुत धन्यवाद मैम इन अनगढ़ भावों को कविता जैसा मान देने के लिए ! :-)))))

Comment by Arun Sri on April 8, 2014 at 1:48pm

Dr.Prachi Singh मैम , अच्छा लगा कि आपने औपचारिकता से अधिक कहा ! बहुत-बहुत धन्यवाद !

Comment by coontee mukerji on April 6, 2014 at 1:19pm

बहुत सुंदर और मार्मिक रचना...आपकी सारी रचनाओं में से मुझे यह बहुत अच्छी लगी.....

मेरा दिया सिन्दूर तुम चढ़ाती रही गांव के सत्ती चौरे पर !

तुम्हारी दी हुई कलम को तोड़ कर फेंक दिया मैंने !

उत्तरपुस्तिकाओं पर उसी कलम से पहला अक्षर टांकता था मैं !

मैंने स्वीकार कर लिया अनुत्तीर्ण होने का भय !

 

तुमने काजल लगाते हुए कहा कि मुझे याद करोगी तुम !

मैंने कहा कि मैं कभी नहीं लिखूंगा कविताएँ !

 

कितनी सच्ची थी तुम , और मैं कितना झूठा था !!!.......और मैं कविता लिख ही डाला.....इस रचना को बार बार पढ़ने को मन करेगा.सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 5, 2014 at 9:10pm

गहन संवेदनाओं को कलात्मकता के साथ बिम्बों में पिरोते हुए प्रस्तुत कर देना आपकी रचनाओं की खासियत है... पाठक भी निःशब्द मौन महसूसता रहता है देर तक 

कुछ एहसास कभी दूर नहीं दिल से... और संवेदनशील कवि चाहे कभी कुछ भी कह ले..भाव कविता में ढल ही जाते हैं 

इस मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति पर हार्दिक बधाई

Comment by Arun Sri on April 5, 2014 at 11:46am

कहाँ धर्मेन्द्र कुमार सिंह सर , ढंग से हाँथ भी नहीं खुले अभी तो ! धन्यवाद आपको ! :-))))

Comment by Arun Sri on April 5, 2014 at 11:34am

जितेन्द्र 'गीत सर , बहुत धन्यवाद !

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-122 (विषय मुक्त)
"जी, ऐसा ही होता है हर प्रतिभागी के साथ। अच्छा अनुभव रहा आज की गोष्ठी का भी।"
15 hours ago
अजय गुप्ता 'अजेय replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-122 (विषय मुक्त)
"अनेक-अनेक आभार आदरणीय शेख़ उस्मानी जी। आप सब के सान्निध्य में रहते हुए आप सब से जब ऐसे उत्साहवर्धक…"
16 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-122 (विषय मुक्त)
"वाह। आप तो मुझसे प्रयोग की बात कह रहे थे न।‌ लेकिन आपने भी तो कितना बेहतरीन प्रयोग कर डाला…"
18 hours ago
अजय गुप्ता 'अजेय commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल - यहाँ अनबन नहीं है ( गिरिराज भंडारी )
"ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकार करें आदरणीय गिरिराज जी।  नीलेश जी की बात से सहमत हूँ। उर्दू की लिपि…"
20 hours ago
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - मुक़ाबिल ज़ुल्म के लश्कर खड़े हैं
"धन्यवाद आ. अजय जी "
23 hours ago
अजय गुप्ता 'अजेय replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-122 (विषय मुक्त)
"मोर या कौवा --------------- बूढ़ा कौवा अपने पोते को समझा रहा था। "देखो बेटा, ये हमारे साथ पहले…"
yesterday
अजय गुप्ता 'अजेय commented on अजय गुप्ता 'अजेय's blog post ग़ज़ल (कुर्ता मगर है आज भी झीना किसान का)
"जी आभार। निरंतर विमर्श गुणवत्ता वृद्धि करते हैं। अपनी एक ग़ज़ल का मतला पेश करता हूँ। पूरी ग़ज़ल भी कभी…"
yesterday
Nilesh Shevgaonkar commented on अजय गुप्ता 'अजेय's blog post ग़ज़ल (कुर्ता मगर है आज भी झीना किसान का)
"क़रीना पर आपके शेर से संतुष्ट हूँ. महीना वाला शेर अब बेहतर हुआ है .बहुत बहुत बधाई "
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-122 (विषय मुक्त)
"हार्दिक स्वागत आपका गोष्ठी और रचना पटल पर उपस्थिति हेतु।  अपनी प्रतिक्रिया और राय से मुझे…"
yesterday
अजय गुप्ता 'अजेय replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-122 (विषय मुक्त)
"आप की प्रयोगधर्मिता प्रशंसनीय है आदरणीय उस्मानी जी। लघुकथा के क्षेत्र में निरन्तर आप नवीन प्रयोग कर…"
yesterday
अजय गुप्ता 'अजेय commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - मुक़ाबिल ज़ुल्म के लश्कर खड़े हैं
"अच्छी ग़ज़ल हुई है नीलेश जी। बधाई स्वीकार करें।"
yesterday
अजय गुप्ता 'अजेय commented on अजय गुप्ता 'अजेय's blog post ग़ज़ल (कुर्ता मगर है आज भी झीना किसान का)
"मौसम का क्या मिज़ाज रहेगा पता नहीं  इस डर में जाये साल-महीना किसान ka अपनी राय दीजिएगा और…"
yesterday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service