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शब्द के व्यापार में.. (नवगीत) // --सौरभ

पूछता है द्वार
चौखट से --
कहो, कितना खुलूँ मैं !

सोच ही में लक्ष्य से मिलकर
बजाता जोर ताली
या, अघाया चित्त
लोंदे सा,
पड़ा करता जुगाली.

मान ही को छटपटाता,
सोचता--
कितना तुलूँ मैं !

घन पटे दिन
चीखते हैं -- रे, पड़ा रह तन सिकोड़े..
काम ऐसा क्या किया, पातक !
कि व्रत में रस सपोड़े !

किन्तु, ले शक्कर हृदय में
कुछ बता
कितना घुलूँ मैं !

शब्द के व्यापार में हैं रत
किये का स्वर  
अहं है
इस गगन में राह भूला वो
अटल ध्रुव
जो स्वयं है !

अब मुझे, संसार,
कह आखिर.. .
कहाँ कितना धुलूँ मैं !
*****************
--सौरभ

*****************

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on March 4, 2014 at 10:30pm

आदरणीय सौरभ भाईजी

आजकल सुंदर लेकिन  भावहीन  व्यापारिक शब्दों का ही आपस में  लेन- देन होता है  भले ही मन में कुछ और हो। आपकी रचना एक सरल हृदय और शुद्ध मन की अभिव्यक्ति है - आखिर कितना खुलूँ , कितना घुलूँ , कितना धुलूँ मैं .....।

सब खुश रहे इस चाह में, कितना करूँ  मैं।

सब जियें,  इस बात पर,  कितना मरूँ मैं॥ 

हार्दिक बधाई देने के बाद भी सोचता हूँ ,  नव गीत को कितना समझ पाया, इस पर क्या लिखूँ , कितना लिखूँ मैं ।

Comment by नादिर ख़ान on March 4, 2014 at 10:21pm

पूछता है द्वार 
चौखट से -- 
कहो, कितना खुलूँ मैं !

आदरणीय सौरभ जी सुंदर नवगीत के लिए बहुत बधाई....

सबके कोमेंट्स और आपके जवाब पढ़ पढ़ कर रचना की गहराई को महसूस कर रहा हूँ ।

Comment by vijay nikore on March 4, 2014 at 10:10pm

//पूछता है द्वार
चौखट से --
कहो, कितना खुलूँ मैं !//

 

//मान ही को छटपटाता,
सोचता--
कितना तुलूँ मैं !//

 

रचना की गहराई मन को छू गई।

जीवन में वह समय आते हैं जब हम स्वयं से यह प्रश्न पूछते हैं और कहीं कोई जवाब नहीं मिलते।

एक बार और...एक बार और फिर वही प्रश्न ... फिर वही हम ...

 

बधाई। सादर,

विजय


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 4, 2014 at 9:15pm

आदरणीया प्राचीजी, आपने जिस गहनता से मानसिक, आध्यात्मिक और वैचारिक द्वंद्व से त्रस्त मनोदशा को समझा है वह आपके गंभीर अध्ययन को ही उजागर कर रहा है. प्रस्तुत रचना आपको भली लगी इस लिए एक रचनाकार के तौर पर मैं भी संतुष्ट हूँ.

//इस नवगीत में २१२२ की लयात्मकता का बहुत सहज निर्वहन हुआ है, //

यह मात्र संयोग ही है कि उक्त आवृति में रचना की पंक्तियाँ प्रतीत हुईं. मैंने इस हेतु कोई साग्रह प्रयास नहीं किया था.  
वस्तुतः शिल्प के हिसाब से मैंने १६-१२ की यति को संतुष्ट करने की कोशिश की है. यानि पद की कुल मात्रा २८. इस क्रम में मात्र एक पंक्ति को ही अपवाद माना जा सक्ता है, मान ही को छटपटाता, / सोचता-- / कितना तुलूँ मैं ! /
ऐसा इसलिये कि इस पंक्ति में सोचता  शब्द अत्यंत आवश्यक है. मेरे मनस में सार छंद भी घूम रहा होगा. हाँ, गेयता का निर्वहन तनिक भिन्न अवश्य रखा है हमने. किन्तु, चरणान्त वही है जो उक्त छंद में शिल्पगत होता है.

आदरणीया, इस गहन विवेचना के लिए पुनः सादर धन्यवाद


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 4, 2014 at 8:42pm

आदरणीय भाई मनोज मयंकजी, आपकी टिप्पणी केलिए हार्दिक धन्यवाद. प्रस्तुत गीत से आप जैसे पाठक संतुष्ट हुए यह किसी रचनाकार के लिए संतोष की बात हो सकती है. 

शुभ-शुभ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 4, 2014 at 8:39pm

भाई अतेन्द्रजी, आपकी टिप्पणी उस यथार्थ के आयामों को उभारती है जो रचनाकर्म की तथ्यात्मकता की व्याख्या हुआ करती है. बहुत-बहुत धन्यवाद.

हाँ, आम बोलचाल में ’शब्दों से खेलना’ बहुत प्रचलित मुहावरा है लेकिन वस्तुतः यह मुहावरा नकारात्मक भाव ही साझा करता है. शब्दों से खेलने वालों को लफ़्फ़ाज़ कहते हैं. मैं हार्दिक निवेदन करता हूँ कि मेरे रचनाकार को कोई ऐसा न समझे .. :-)))

लेकिन, मुझे यह भी अच्छी तरह ज्ञात है कि आप ऐसी किसी मंशा के तहत कुछ भी नहीं कह रहे हैं. और आप मेरे प्रति सदा सकारात्मक ही रहते हैं.

कहना प्रासंगिक ही होगा, कि आदरणीय योगराज भाईजी ने तथा वरिष्ठ शाइर आदरणीय एहतराम इस्लाम ने मेरी पुस्तक ’इकड़ियाँ जेबी से’ की भूमिका में मेरे प्रयुक्त शब्दों की ताकत पर जो कुछ कहा है उसे जान लेना मेरे अधिकांश पाठकों के लिए उचित होगा.

शुभेच्छाएँ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on March 4, 2014 at 6:22pm

आदरणीय सौरभ जी 

 

 अंतर्चेतना को झन्ना कर रख देने वाले मानसिक वैचारिक दार्शनिक (या कहें एक सम्मिश्रित) अंतर्द्वंद्व  को बहुत सुदृढ़ शब्द मिले हैं आपके इस नवगीत में..

पूछता है द्वार 
चौखट से -- 
कहो, कितना खुलूँ मैं !

 

हर बंद एक गहन भावदशा की अभिव्यक्ति है... एक ओर जहाँ मन-भावनाओं की काल्पनिक सम्पूर्णता पर आनंदातिरेक या आत्ममुग्ध जड़ता व्यक्त हुई है वहीं दूसरी ओर इंद्रजाल में फंस व्रती मन के पथच्युत होने की लानत को मुखरित किया है...ये भी सही है कि शब्दों की रसाकशी (आदानप्रदान) के पृष्ठ में अहं भाव जब हो (इस अहं भाव के भी परत दर परत कितने स्तर होते हैं कुछ तो एकदम स्पष्ट और कुछ स्वयं से भी बिलकुल छुपे-छुपे से) तब जैसे एक पवित्रतम चेतना भी किसी वृत्ति से दूषित हो पुनः प्रक्षालित होने को तड़प उठे.

इस भावदशा से गुज़रना अनुभूतियों को विस्तार देता सा लगा..जिसके लिए इस रचना पर आपको ह्रदय से धन्यवाद प्रेषित है.

 

वैचारिक अभिव्यक्तियों में गेयता की बाध्यता तो नहीं रहती, फिर भी इस नवगीत में २१२२ की लयात्मकता का बहुत सहज निर्वहन हुआ है, दूसरे बंद में व्रत शब्द पर और तीसरे बंद की पहली पंक्ति में प्रवाह में अटकाव अवश्य महसूस हुआ.

 

आपकी वैचारिक रचनाओं से गुज़ारना हमेशा ही एक व्यक्तिगत अनुभूति सा बन जाता है.. इस उत्कृष्ट भाव पगे नवगीत पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें

 

सादर.

Comment by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on March 4, 2014 at 5:42pm

अतुलनीय..इतना अतुलनीय की मैं किसी भी प्रकार के प्रतिक्रिया की स्थिति में नहीं हूँ..बस रसपान कर रहा हूँ और सोच भी रहा हूँ..कहो कितना खुलूं मैं

Comment by Atendra Kumar Singh "Ravi" on March 4, 2014 at 5:32pm

शब्द के व्यापार में जो रत 
भाव का वर्ण  
अहं है  
इस गगन में राह भूला वो 
अटल ध्रुव 
जो स्वयं है !

अब मुझे, संसार, 
कह आखिर.. .
कहाँ कितना धुलूँ मैं !------वाह वाह शब्दों से खेलना कोई आप से सीखे ...मन खुद से ही प्रश्न पूछकर और उत्तर भी देकर मन के बेचैनी को शांत करता है फिर भी मन की छटपटाहट स्पष्ट झलकती है ....अति सुन्दर भावो को समेटती आपकी अभिव्यक्ति को बारम्बार नमन ......इस शानदार नवगीत के लिए अतिशय बधाईयाँ आपको आ० सौरभ सर जी


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 4, 2014 at 10:41am

सादर आभार आदरणीया मीनाजी

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