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तसव्वुरात ... (विजय निकोर)

तसव्वुरात

रुँधा हुआ अब अजनबी-सा रिश्ता कि जैसे

फ़कीर की पुरानी मटमैली चादर में

जगह-जगह पर सूराख ...

 

हमारी कल ही की करी हुई बातें

आज -- चिटके हुए गिलास

के बिखरे हुए टुकड़ों-सी ...

 

कुछ भी तो नहीं रहा बाकी

ठहराने के लिए

पार्क के बैंच को अब

अपना बनाने के लिए

 

फिर क्यूँ फ़कत सुनते ही नाम

मैं तुम्हारा ... तुम मेरा ...

कि जैसे सीनों पर हमारे किसी ने

मार दिया हो पत्थर बड़ा-सा

 

फ़ासलों में खोई हुई

सो गई हैं कब से

थकी-थकी हुई मुस्कराहटें

डूबता है दिल बार-बार

 

और अब वही सनातन सवाल ...

 

जागती रहती हैं क्यूँ अभी भी

बेआवाज़ रुहें

किन मुलाकातों के इन्तज़ार में ?

 

ठहर जाते हैं क्यूँ बरसने के बाद

छ्लनी हुए बादल हमारी छतों पर

अभी भी माज़ी के तसव्वुरात लिए ?

 

हमारे टूटे-बिखरे आवारा ख़्वाबों के

अंधेरों-उजालों की

कोई उमीद, कोई हकीकत बाकी है शायद

 

------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 660

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Comment by vijay nikore on March 5, 2014 at 9:13am

सदैव समान आपने रचना को मान दिया, आपका हार्दिक धन्यवाद, आदरणीया अन्नपूर्णा जी। 

 

Comment by vijay nikore on March 4, 2014 at 8:16am

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय कवि - राज बुन्देली जी।

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 22, 2014 at 11:43am

हमारे टूटे-बिखरे आवारा ख़्वाबों के

अंधेरों-उजालों की

कोई उमीद, कोई हकीकत बाकी है शायद-------इसमें भी संतोष का झलक दिखती है | चलो इसी के सहारे सही ! सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई श्री विजय निकोरे जी 

Comment by Vindu Babu on February 21, 2014 at 10:20pm

आदरणीय विजय सर:

आपकी इस रचना की भाषा में थोड़ा सा बदलाव दिखा मुझे लेकिन भावों की सघनता और बिम्बों का प्रस्तुतिकरण...क्या कहना!

रचना में प्रयुक्त बिम्ब मुझे  बहुत सटीक लगे.

सनातन सवाल...कितने स्पर्शी हैं!

अभिव्यक्ति बड़ी अच्छी लगी आदरणीय...हर शब्द ने हृदय को छुआ.

हार्दिक बधाई इस सफ़ल रचना के लिए आपको.

सादर

Comment by बृजेश नीरज on February 21, 2014 at 7:49pm

बहुत ही सुंदर! आपको हार्दिक बधाई!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 20, 2014 at 11:16pm

बहुत सुंदर व् गहन भाव, बधाई स्वीकारें आदरणीय विजय जी

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 20, 2014 at 10:42pm

आदरणीय भाई विजय जी ,एक भावपूर्ण और सुगठित रचना के लिए हार्दिक बधाई


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 20, 2014 at 5:35pm

आदरणीय बड़े भाई , राख में अंगारों की सम्भावना तलाशती आपकी रचना बहुत अच्छी लगी ॥ आपको दिली बधाइयाँ ॥

Comment by annapurna bajpai on February 19, 2014 at 6:49pm

आदरणीय विजय निकोर जी सुंदर रचना हेतु बधाई स्वीकारें । 

Comment by कवि - राज बुन्दॆली on February 19, 2014 at 12:41pm

वाह् वाह सुन्दर रचना हेतु बधाई आपको

कृपया ध्यान दे...

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