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दायरा...

       सोच का,

       मन की उड़ान के

       परिचित आसमान का,

       अंतर्भावनाओं के विस्तार का,

       अनुभूतियों के सुदूर क्षितिज का,

समयानुरूप

स्वतः विस्तारित हो, तो कैसे ?

 

तन मन बुद्धि अहंकार की

लोचदार चारदीवारी मैं कैद...

संकुचन के बल-प्रतिबल

से संघर्षरत,

होता क्लिष्ट से क्लिष्टतर

जटिल से दुर्भेद फिर अभेद

कर्कश कट्टर असह्य  

 

आखिर

कौन सचेत, पहचानता है ये दायरा ?

       पहले अपना 

       फिर दूसरों का..

कौन निर्भय, तोड़ता है ये दायरा ?

       पहले अपना 

       फिर दूसरों का..

कौन उन्मुक्त, करता है आज़ाद ?

       अंतर बद्ध पंछी को

       पिंजर से-

       असीम आकाश में

       उड़ जाने के लिए...

 

क्या प्रियतम तुम?

(मौलिक और अप्रकाशित) 

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 4, 2014 at 2:12am

कायिक परिसीमाओं के परे जाने और जानने की ललक सदा से सूक्ष्म को आग्रह से जीने और फिर उसे उद्बोधित करने को प्रेरित करती रही है. आपकी प्रस्तुत रचना उसी छाया में अपना निर्वहन पाती है.

सादर बधाइयाँ.

Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 14, 2014 at 7:47pm

ऐसी रचनाएँ चिंतन को जन्म देती हैं,,,चिंतन सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होता जाता है और तब बह भित्तिर्यों से टकराता नहीं उसकी शूक्ष्मता उसे कोई न कोई रास्ता दे ही देती है बहार निकलने का ..बस मैं तो ऐसे ही समझता हूँ जैसे आपकी रचनाओं का चिंतन मेरे काव्य लेखन के दायरे को बाधा रहा है बैसे ही चिंतन हर दायरे को बढाता है ..रही बात बन्धनों की तो बंधन किसी को पसंद नहीं ..हर जीव मुक्त होने में बिश्वास रखतअ है ..जो मुझे समझ में आया मैंने लिखा ..आपका मार्गदर्शन बांछित रहेगा ..सादर 

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on February 13, 2014 at 9:47pm

आदरणीया प्राचीजी,

दायरा कितना छोटा या बड़ा ............ सचमुच यह सब मन की ही तो सोच है।

हार्दिक बधाई सुंदर रचना पर ।

Comment by annapurna bajpai on February 13, 2014 at 8:16pm

आ0 प्राची जी सुंदर रचना हेतु बधाई स्वीकारें । 

Comment by राजेश 'मृदु' on February 13, 2014 at 6:27pm

एक अलग ही मनोदशा होती है आपकी रचनाओं की, यूं लगा जैसे किसी महर्षि को पढ़ रहा हूं, सादर

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 13, 2014 at 6:04pm

भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई डॉ प्राची सिंह जी | सादर 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 13, 2014 at 9:44am

 बेहद उत्कृष्ट भाव से संजोयी अनुपम रचना, हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीया डा.प्राची जी

Comment by Neeraj Neer on February 13, 2014 at 9:32am

क्या प्रियतम तुम ... बहुत उत्कृष्ट भाव समेटे , प्रश्न और अंत में उत्तर भी .. सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई ..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 12, 2014 at 10:01pm

आदरणीया प्राची जी , सबके अन्दर बैठा प्रियतम ही दायरे की सही पहचान कर सकता है और  मन ,बुद्धि , अहंकार ही रास्ते रोड़े हो ते हैं

आदरणीया , अगर मै सही न समझ पाया होउँ तो , समझाइयेगा ज़रूर ॥ सुन्दर रचना के लिये आपको बधाइयाँ ॥

Comment by vandana on February 12, 2014 at 9:38pm

आखिर

कौन सचेत, पहचानता है ये दायरा ?

       पहले अपना 

       फिर दूसरों का..

कौन निर्भय, तोड़ता है ये दायरा ?.....

...

क्या प्रियतम तुम?

बहुत सुन्दर रचना आदरणीया प्राची जी 

कृपया ध्यान दे...

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