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कहा कब कि दुनिया ये ज़न्नत नहीं है
तुम्हे पा सकें ऐसी किस्मत नहीं है //1//
मोहब्बत को ज़ाहिर करें भी तो कैसे
पिघलने की हमको इजाज़त नहीं हैं //2//
तो वादों की जानिब कदम क्यों बढ़ाएं
निभाने की जब कोई सूरत नहीं है. //3//
बहुत सब्र है चाहतों में तुम्हारी
नज़र में ज़रा भी शरारत नहीं है //4//
सुलगती हुई आस हर बुझ गयी, पर
हमें आँधियों से शिकायत नहीं है //5//
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी
ग़ज़ल पर आपकी उत्साहवर्धक सराहना के लिए सादर धन्यवाद.
बहुत शानदार ग़ज़ल ..हर शेर अपने आप में ग़ज़ल है ...बधाई
तो वादों की जानिब कदम क्यों बढ़ाएं
निभाने की जब कोई सूरत नहीं है.
लाजवाब ग़ज़ल कही है , बहुत खूब हार्दिक बधाइयाँ.
मोहब्बत को ज़ाहिर करें भी तो कैसे
पिघलने की हमको इजाज़त नहीं हैं //2//
kya kahoo.....speechless ........bhut hi komal ,,kinhi dili bhavo ka prasfutan aur sankuchan , usme ik aah ka put ...wah wah .....sath hi ,.,,,,,"pighlne" ke tamam aashya ....ho sakte hai ..par kya "SAMARPAN' hai ....ya "ANA' ka tyag ? .. ...didi please .....kripaya bata de
मोहब्बत को ज़ाहिर करें भी तो कैसे
पिघलने की हमको इजाज़त नहीं हैं //2//
तो वादों की जानिब कदम क्यों बढ़ाएं
निभाने की जब कोई सूरत नहीं है. //3//....
बहुत सुंदर गजल हुई है अदरणीया प्राची जी, दिल से बधाई आपको
आदरणीया प्राची जी , लाजवाब ग़ज़ल कही है , बहुत खूब ॥ हार्दिक बधाइयाँ ॥
मोहब्बत को ज़ाहिर करें भी तो कैसे
पिघलने की हमको इजाज़त नहीं हैं
सुलगती हुई आस हर बुझ गयी, पर
हमें आँधियों से शिकायत नहीं है ----------- ये दो शेर खूब पसन्द आये , ढेरों दाद स्वीकार करें ॥
आदरणीय प्रधान सम्पादक महोदय
इस एक शेर में मेरे अनगढ़ प्रयास को क्या खूब तराशा है आपने...
थोड़े से ट्विस्ट से ही बात का वज़न कितना बढ़ गया..वाह!
तो वादों की जानिब कदम क्यों बढ़ाएं......................इस सुगढ़ मिसरे को मैं इसी तरह अपनी ग़ज़ल में प्रतिस्थापित कर रही हूँ
निभाने की जब कोई सूरत नहीं है
मार्गदर्शन के लिए सादर धन्यवाद आदरणीय
ग़ज़ल प्रयास पर आपकी उत्साहवर्धक सराहना के लिए हार्दिक आभार आ० अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी
आ० डॉ प्राची सिंह जी, सबसे पहले तो मेरी राय को मान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद। दूसरे, मुझे लगता है कि संशोधित अश'आर में पहले वाला (यानि कि निम्नलिखित) शेअर ज़यादा बेहतर और प्रभावशाली है क्योंकि अब दोनों मिसरे एक दूसरे को कुशन दे रहे हैं:
न वादों तलक बढ़ सकेंगे कभी हम
निभाने की जब कोई सूरत नहीं है
वैसे थोडा सा ट्विस्ट यूँ भी दिया जा सकता है :
तो वादों की जानिब कदम क्यों बढ़ाएं
निभाने की जब कोई सूरत नहीं है.
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