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एक रात अचानक पुलिस वाले उसे उग्रवादी बता कर घर से उठा कर ले गए. क्या क्या ज़ुल्म नहीं किये गए थे उस पर. वह चीख चीख कर खुद को बेनुगाह बताता रहा लेकिन सब कुछ सुनते हुए भी सरकारी जल्लाद बहरे बने रहे. यातनाएं सहते सहते तक़रीबन छह महीने बीत गए थे. तभी एक दिन सरकार ने अपनी नई नीति के अनुसार उसे रिहा कर दिया ताकि वह भी राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल हो सके. उसके वापिस लौटने से घर में ख़ुशी का वातावरण था, लेकिन वह जड़वत बैठा न जाने कहाँ खोया रहता. वृद्ध पिता ने एक दिन उसके कंधे पर हाथ रखकर पूछा:

"बहुत दिन हो गए तुम्हें वापिस आए हुए, कुछ काम काज का सोचा?"
"नौकरी तो अब मिलने से रही..... तो ……"
"बेटा, अगर कहो तो लोन लेकर तुम्हें एक टैक्सी दिलवा दें?"      
"टैक्सी नहीं, मुझे एक बन्दूक दिलवा दो बापू." 
अंदर की आग अब उसकी आँखों में उतर आई थी। 
.
(मौलिक व अप्रकाशित)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 25, 2013 at 8:32pm

अदरणीय योगराजभाईजी, मानवीय मनोदशाओं के कई पहलू होते हैं और आपकी लघुकथायें अक्सर उनकी छायाएँ और प्रतिच्छायाएँ सामने लाती रही हैं.
प्रस्तुत लघुकथा भी किसी तौर पर कमतर नहीं है. आपकी इस प्रस्तुति को हृदय से बधाई.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 20, 2013 at 2:20pm

व्यस्था द्वारा निर्दोष पर एक बड़ा इलज़ाम लगाना और अमानवीय यातनाएं दिया जाना... कितना आक्रोश भर देता होंगा उसके अंतर्मन में... इसकी कल्पना भी दिल दह्लादेने वाली है.. आखिर कैसे ऐसा घायल/ छलनी  किया गया अंतर्मन मुख्यधरा में शामिल हो सकेगा..?

आपकी लघुकथाओं के अलग अलग विषय बहुत प्रभावित करते हैं.. व्यस्था का एक ऐसा अलहदी विकृत स्याह प्रारूप जो एक निर्दोष को हथियार उठाने को बाध्य कर दे .....सबके समक्ष प्रस्तुत करती एक बहुत ही सार्थक लघुकथा.

हार्दिक बधाई आदरणीय प्रधान सम्पादक महोदय.

Comment by coontee mukerji on December 20, 2013 at 2:16pm

अंदर की आग अब उसकी आँखों में उतर आई थी। 
.पूरी कथा का निचोड़ इन शब्दों में आ गयी....जो कथा की सार्थकता की परिचायक है. सादर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on December 19, 2013 at 7:54pm

अतिमार्मिक कथा। एक ज्वलन्त प्रश्न.......। सुन्दर व शानदार प्रस्तुति। बधार्इ स्वीकारें।  सादर,


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 19, 2013 at 7:33pm

आदरणीय योगराज सर , अकारण सताये जाने का हश्र सदा से यही होता आया है , पहले लोग बीहड़ का रुख करके डाकू बन जाते थे , अब केवल नाम बदल गया है , हश्र वही है । सार्थक सन्देश देती लघु कथा के लिये आपको बधाई ॥

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on December 19, 2013 at 2:09pm

अंग्रेजों द्वारा बेगुनाहों पर किये गये अमानुषिक अत्याचार के कारण ही भगतसिंह, राजगुरु, शेखर आदि शस्त्र उठाने को मजबूर हुए थे, अब काले अंग्रेजों का जमाना है इसलिए  बदला कुछ नहीं। गरीब असहाय की आज भी कोई नहीं सुनता । भोले भाले को पुलिस और प्रशासन ही अपराधी बनाती है । भारत की सारी व्यवस्था अंग्रेजों की कार्बन कापी है ॥ आजाद भारत की सच्चाई बयान करती इस लघु कथा पर मेरी हार्दिक बधाई योगराज भाई॥ आपकी लघु कथा का इंतजार रहता है॥ 

Comment by annapurna bajpai on December 19, 2013 at 2:01pm

बहुत खूब ! आ० योगराज जी । सही है कि आतंकवादी या उग्रवादी पेट से नहीं जन्मते , उन्हे बनाया जाता है बस पृष्ठ भूमि अलग अलग होती  है । इस संदेश युक्त लघु कथा हेतु बधाई आपको । 

Comment by Meena Pathak on December 19, 2013 at 1:16pm

टैक्सी नहीं, मुझे एक बन्दूक दिलवा दो बापू."  
अंदर की आग अब उसकी आँखों में उतर आई थी।  ........आप की लघुकथा सीधे दिल पर ठक से लगी .............बहुत बहुत बधाई आप को आदरणीय योगराज जी | सादर  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 19, 2013 at 12:02pm

कुछ आतंकवादियों का इतिहास ये भी होता है ,पेट से आतंकवादी पैदा नहीं होते कुछ हालात भी पैदा करते हैं तथा न्याय प्रक्रिया ,पुलिस की अपने दायित्व के निर्वहन की असफलता पर सीधे सीधे चोट करती है ये लघु कथा | बहुत बढ़िया अपना सन्देश देने में कामयाब लघु कथा हेतु बहुत- बहुत बधाई आदरणीय योगराज जी.   

Comment by AVINASH S BAGDE on December 19, 2013 at 10:38am

"....अंदर की आग अब उसकी आँखों में उतर आई थी। " ......

अपराधियों  का जन्म ऐसी ही बेगुनाही कि दस्तानों से होता है/कठोर किन्तु सत्य आद.प्रभाकर जी 

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