बह्र : २२१२ २२१२ २२१२ २२१२
जब से हुई मेरे हृदय की संगिनी मेरी कलम
हर पंक्ति में लिखने लगी आम आदमी मेरी कलम
जब से उलझ बैठी हैं उसकी ओढ़नी, मेरी कलम
करने लगी है रोज दिल में गुदगुदी मेरी कलम
कुछ बात सच्चाई में है वरना बताओ क्यों भला
दिन रात होती जा रही है साहसी मेरी कलम
यूँ ही गले मिल के हैलो क्या कह गई पागल हवा
तब से न जाने क्यूँ हुई है बावरी मेरी कलम
उठती नहीं जब भी किसी का चाहता हूँ मैं बुरा
क्या खत्म करने पर तुली है अफ़सरी, मेरी कलम
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , बहुत शानदार गज़ल कही है !!!!
उठती नहीं जब भी किसी का चाहता हूँ मैं बुरा
क्या खत्म करने पर तुली है अफ़सरी, मेरी कलम --!! बेहतरीन शे र !!! बधाई !!
बहुत खूब भाई अच्छी ग़ज़ल कही है
ढेरो मुबारकबाद
उठती नहीं जब भी किसी का चाहता हूँ मैं बुरा
क्या खत्म करने पर तुली है अफ़सरी, मेरी कलम
----- बहुत बढियां ..
यूँ ही गले मिल के हैलो क्या कह गई पागल हवा
तब से न जाने क्यूँ हुई है बावरी मेरी कलम....वाह श्री धर्मेन्द्र जी वाह आनंदित हूँ इस प्रस्तुति पर कई फलक है हर शेर अलग अंदाज़ का बधाई बहुत बहुत
आखिरी वाला शेर बहुत उम्दा है
बधाई आपको
बेहतरीन
बहुत सुन्दर गज़ल हार्दिक बधाई आप को
उठती नहीं जब भी किसी का चाहता हूँ मैं बुरा
क्या खत्म करने पर तुली है अफ़सरी, मेरी कलम |
वाह वाह सुन्दर ग़ज़ल आदरणीय धर्मेन्द्र जी...
दिली दाद क़ुबूल कीजिये !!
ग़ज़ल में आबद्ध दस्ताने कलम अच्छी रचना है i कलम के हुनर हजारो है i आगे भी अधिक की उम्मीद करता हूँ i सस्नेह i
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