देश काल निमित्त की सीमाओं में जकड़े तुम
और तुम्हारे भीतर एक चिरमुक्त 'तुम'
-जिसे पहचानते हो तुम !
उस 'तुम' नें जीना चाहा है सदा
एक अभिन्न को-
खामोश मन मंथन की गहराइयों में
चिंतन की सर्वोच्च ऊचाइंयों में
पराचेतन की दिव्यता में.....
पूर्णत्वाकांक्षी तुम के आवरण में आबद्ध 'तुम'
क्या पहचान भी पाओगे
अभिन्न उन्मुक्त अव्यक्त को-
एक सदेह व्यक्त प्रारूप में......?
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
तुम में मैं को ढूँढना,नहीं बहुत आसान
गीता कितनों ने पढ़ी,पाये कितने ज्ञान ||
रचना की विलक्षणता को नमन......................
इन्सान अगर अपने स्वयं का आत्ममंथन करे तो शायद हर 'मैं' और ' तुम' की दूरी को पाट सकता है, सदा की तरह आपकी गहन भाव से प्रस्तुत रचना पर हृदय से बधाई स्वीकारें आदरणीया डा. प्राची जी
सादर!
आदरणीया प्राची जी , सीमित रह के कभी भी असीम नही जाना जा सकता , या तो खुद असीम हो जायें या असीम मे समाहित हो जायें दो ही रास्ते हैं !!!! बहुत सुन्दर और गम्भीर रचना के लिये आपको दिल से बधाई !!!!!!
पहचान की तलाश कहीं बाहर नहीं अपितु स्वयं के ही भीतर है| आपकी दिव्य लेखनी को नमन जो थोड़े मे ही सारा कुछ कह देती है|
सादर !!
"मैं" जब कुहनी मारकर आगे आने लगता है आबद्ध "तुम" व्यक्त और परिस्फुट होने की बजाए भीतर ही भीतर दुबकने लगता है. जो मनुष्य "मैं" को अहसास की दीवार पर टांग कर निर्भीक हो आगे बढ़ सकता है केवल उसी को अव्यक्त, आबद्ध "तुम" की सिसकी सुनाई देती है...तभी बाहर और अंदर के "तुम" का मिलन होता है, उनकी परिभाषा एक हो जाती है. आदरणीया प्राची जी, मेरी यह समझ ठीक है या नहीं आप बताएँगी लेकिन इस अनुरणन को जन्म देने के लिये मैं आपको नमन करता हूँ. सादर.
अति सुंदर भावों की अभिव्यक्ति , बधाई आपको ।
चिरमुक्त तुम I आबद्ध तुम I पहचान की कसक I वाह प्राची जी i
उत्कृष्ट
जिसने उस तुम को खोज लिया समझ लिया उसने सम्पूर्णता को पा लिया सब सांसारिक दुखों से मुक्ति पा गया ,किन्तु आज की आपा धापी में किसके पास वक़्त है की अपने अन्दर के खुद को पहचाने ,बहुत सुन्दर प्रस्तुति हमेशा की तरह बहुत- बहुत बधाई आपको
नदी कि धारा में जैसे कोई तिनका खुद ब खुद
बहता चला जाए ऐसे आपकी कविता
शब्दों और भावों के संगम में पाठक बहता चला जाए
अप्रतिम बहुत खूबसूरत रचना ।
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