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स्वप्न विलक्षण: ( विजय निकोर )

स्वप्न  विलक्षण:   

 

  स्मृतिओं की सुखद फुहारें

   झिलमिलाती चाँदनी

   की किरणों की झालरें

   अनन्त तारिकाएँ

   सपने में ... और सपने में साक्षात

   तुम ... कब से

 

   पूनों में, अमावस में, मध्य-रात्रि के सूने में

   इस एक सपने से तुमने, मुझसे

   रखा है अविरल अटूट संबंध

   वरना स्मृति-पटल पर चन्द्र-किरण-सा

   कभी प्रकाश-दीप-सा तैरता

   यूँ लौट-लौट न आता ...

 

   मेरे अधबनेपन का बिखराव

   चेहरे पर अतीत का रुँधा हुआ उच्छवास

   इस पर भी भावों का भावों से मेल ...

   इतनी आत्मीयता ... सपने में ?

   अभाव ? कैसा, किसका अभाव ?

   तुम्हारा ?  नहीं, कभी नहीं

 

   ज़िन्दगी के तंग तहखानों से

   गुज़रती कोई रोशनी, देखता हूँ

   उद्दीप्त सपने में प्रज्ज्वलित

   कल्पना की दीप्ति

   प्रकाश-वर्षा-सी

   तुम ... दीप्तिमान रत्न

 

   उमड़ते स्नेह का मिठास आँखो में

   मनमंदिर में तुम्हारे .. स्नेह-अक्षर

   जैसे हँसते हुए फूलों के पराग-स्तर

   प्रकाश-पर्व के बाद भी हर वर्ष

   दो नयन तुम्हारे, दो नयन हमारे

   यह अनमोल दिए  मुस्कराते रहे

 

   स्मृतिओं की सुखद फुहारें

   सपने में ... सपने में तुम

   कब से ...

 

            -----

                                         -- विजय निकोर

 

 

   (मौलिक व अप्रकाशित)

 

Views: 892

Comment

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Comment by vijay nikore on November 19, 2013 at 11:48am

//बहुत ही  सुन्दर  प्रस्तुति//

रचना की सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय राम जी।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on November 19, 2013 at 11:46am

//बहुत सुन्दर प्रस्तुति अंत ने तो मन मोह लिया//

रचना की सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीया राजेश जी।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on November 19, 2013 at 11:44am

//क्या ही सुंदर रचना हुई है //

 

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया अन्न्पूर्णा जी।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on November 18, 2013 at 11:45pm

//स्वप्न मे ही जैसे तमाम रिश्ते को आपने जी लिया हो !!!!!!! बहुत सुन्दर भावों से ओत प्रोत//

कविता की भाव-दशा को इतने पास से स्पर्श करने के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय गिरिराज भाई।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on November 18, 2013 at 11:41pm

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय अखिलेश जी।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on November 17, 2013 at 1:20pm

आदरणीय गोपाल नारायन जी:

 

// आपकी  चोट बड़ी गहरी है  I  मगर आप धन्य है  कि उसे मरहम बनाये हैं  I जितने सुन्दर भाव उतना ही सुन्दर शब्द चयन //

 

 मर्म और भावदशा को इतने समीप से अनुभव करने के लिए और रचना को सराहने के लिए आपका हार्दिक आभार।

 

सादर,

विजय निकोर

 

 

 

 

Comment by vijay nikore on November 17, 2013 at 1:12pm

रचना की सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय शिज्जू जी।

Comment by Vindu Babu on November 16, 2013 at 10:03pm
आदेरणीय आपकी रचनाओं में भावनाओं का चित्रण बहुत ही यथार्थ होता है। कल्पना की अपेक्षा अनुभवगम्यता की प्रधानता होती है,इस रचना में भी। हर एक शब्द के पीछे ढेर सा चिन्तन...
"प्रकाश पर्व के बाद भी हर वर्ष"का अर्थ स्पष्ट नहीं समझ सकी मैं ,
सादर जानना चाहती हूँ आ दरणी य कि'हर वर्ष' की जगह 'हर दि न'या 'हर क्ष ण'क्यों नहीं?
आपको बहुत बधाई इस गहन रचना के लिए।
सादर
Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on November 13, 2013 at 12:05am

सजीव चित्र खींचती यह रचना अनुपम है, माननीय। हार्दिक बधाई स्वीकारें।

Comment by Priyanka singh on November 12, 2013 at 10:19pm

   उमड़ते स्नेह का मिठास आँखो में

   मनमंदिर में तुम्हारे .. स्नेह-अक्षर

   जैसे हँसते हुए फूलों के पराग-स्तर

   प्रकाश-पर्व के बाद भी हर वर्ष

   दो नयन तुम्हारे, दो नयन हमारे

   यह अनमोल दिए  मुस्कराते रहे

 

   स्मृतिओं की सुखद फुहारें

   सपने में ... सपने में तुम

   कब से ..

 बेहद खूबसूरत ....मन को छू लिया.... वाह.... बहुत बहुत बधाई इस रचना हेतु.....

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