निकले धूप और कभी बादल हैं पिघलते रहें
मौसमों की फितरतों में है की बदलते रहे
कभी पके कभी फुटे लौंदे गए रौंदे गए
मस्त होके जिंदगी के सांचे में ढलते रहे
शिकवा नहीं जीवन के है उतार और चढाव से
तकदीर के जानों पे हम ख़ुशी ख़ुशी पलते रहे
मुश्किलों तो आएँगी हज़ारों राह में मगर
कारोबार-ए-जिंदगी के कारवां चलते रहे
आयें लाखों तूफां पर उम्मीदें बुझ सकें नहीं
हौसलों के साए में चराग ये जलते रहे
चलकर खिलाफ लहरों के हम पहुंचे हैं किनारों पर
लोगो की निगाह में यूँ ही नहीं खलते रहे
शरद
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
श्री गिरिराज भंडारी जी .......और आशुतोष मिश्र जी ........बहुत बहुत आभार की आपके मार्गदर्शन और उत्साहवर्धन का........आपके अमूल्य सुझावों को अवश्य ही अमल में लाया जायेगा......धन्यवाद
श्री वीनस जी.......रचना पर प्रतिक्रिया देने के लिए आभार .........यह आपका ही मार्गदर्शन है की मैं इस मंच पर मौजूद हूँ........आप लोगों के सानिध्य में यथा-संभव सीखने का प्रयास जारी है.........
माननीय विजय मिश्र जी ,राम शिरोमणि पाठक जी एवं ब्रिजेश नीरज जी.......आप सभी के द्वारा मिले उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद
इस प्रयास पर आपको हार्दिक बधाई!
आपके प्रयास पर हार्दिक बढ़ाई ...आदरणीय वीनस जी का मशविरा अमल में लायें ..आपको सुखद परिणाम मिलेंगे ..सादर
आदरणीय शरद भाई , गज़ल के गम्भीर प्रयास के लिये आपको बहुत बहुत बधाई !!!! वीनस भाई के कहे अनुसार आप गज़ल की बातें और गज़ल की कक्षा का बहुत अच्छे से अध्ययन करना शुरू कर दीजिये !!!
आप सही मंच पर मौजूद हैं ... मंच पर प्रस्तुत सामग्री का अध्ययन करें ...
सादर
सुंदर प्रयास हार्दिक बधाई आपको //सादर
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