1212 1122 1212 22 .... अंतिम रुक्न ११२ भी पढ़ा गया है ..
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नज़र, नज़र से मिला, सब्र आज़माते रहे,
मेरे रक़ीब मुझे देख, तिलमिलाते रहे.
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घटाएँ, रात, हवा, आँधियाँ करें साज़िश,
मगर चिराग़ ये बेखौफ़ जगमगाते रहे.
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गुनाह, जुर्म, सज़ा, माफ़ आपकी कर दी,
ये कह दिया तो बड़ी देर सकपकाते रहे.
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खफ़ा खफ़ा से रहे बज़्म में सभी मुझसे,
वो पीठ पीछे मेरे शेर गुनगुनाते रहे.
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मिला हमें न सुकूँ दफ्न कब्र में होकर,
किसी की ज़ुल्फ़ अदा, अश्क़ याद आते रहे.
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फ़रेब झूठ सरीखे, बना लिए साथी,
इबादतों में ख़ुदा को मगर भुलाते रहे.
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पुकारता है किसे ‘नूर’ इस जहाँ में अब,
कि कश्तियाँ, तेरे साहिल ही ख़ुद डुबाते रहे.
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निलेश 'नूर'
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया सौरभ जी, बैद्यनाथ जी
आभार
उम्दा ग़ज़ल हेतु अनंत बधाइयाँ .... बेहतरीन अशआर हैं ...वाह साहिब :)
घटाएँ, रात, हवा, साथ मिल करें साज़िश,
मगर चिराग़ तो बेखौफ़ जगमगाते रहे......... :-))))))))))))))
वाह
आदरणीय Saurabh Pandey जी,
बहुत बहुत धन्यवाद.. आप के इस कमेंट से मुझ में भी एक थॉट प्रोसेस डेवलप हुई है ...आप ने एकदम ठीक कहा है. क्या इसे यूँ किया जा सकता है ??
घटाएँ, रात, हवा, साथ मिल करे साज़िश,
मगर चिराग़ ये बेखौफ़ जगमगाते रहे.
घटाएँ, रात, हवा, आँधियाँ करें साज़िश,
मगर चिराग़ ये बेखौफ़ जगमगाते रहे.
यह शेर भला लगा है, लेकिन हवा और आँधियाँ दोनों को साथ लेना हो तो मैं न लेता. दोनों एक ही बिम्ब के दो पहलू हैं.
लेकिन की रात द्वारा हो रही साजिश सोच कर मन खुश हो गया. चिराग़ के जलते जाने का सबसे बड़ा सबब रात ही हुआ करती है यानि कमअक्ली के बरअक्स अपनी समझ को जिलाते जाना..
आप अच्छा कह रहे हैं भाईजी. हार्दिक बधाइयाँ
धन्यवाद आदरणीया अन्नपूर्णा जी, आदरणीय गिरिराज जी, आदरणीय डॉ अनुराग सैनी जी...
वाह | वाह | मजा आ गया | तहे दिल से बधाई |
आदरणीय नीकेश भाई , बहुत शानदार , कामयाब गज़ल हो गई है सुधारने के बाद !!! पाँचो शेर लाजवाब है !!! बहुत बधाई आपको !!!
आदरणीय नीलेश जी उम्दा गजल हुई है , दिली दाद कुबूल फरमाए ।
शुक्रिया अभिनव जी ..
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