कैसा ये जीवन हुआ, दिन प्रति बढ़े विकार
लोभ, मोह, मद, दंभ भी, नित लेते आकार
नित लेते आकार, स्वार्थ के सर्प अनूठे
बाँट रहे संदेह, नेह के बंधन झूठे
मन में फैली रेह, भाव है ठूंठों जैसा
संवेदन अब शून्य, मूल्य संस्कृति का कैसा
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
बहुत सुन्दर कुण्डलियाँ बधाई आदरणीय बृजेश जी
सामयिक जीवन में, आज की वास्तविकता को बहुत ही खूबसूरती से आप ने उभारा है, कुंडली रचना में भाव पूर्णत: अपनी स्पष्टता का चित्रण कर रहे हैं, बहुत बहुत बधाई आदरणीय बृजेश जी
वाह आदरणीय बृजेश जी बेहतरीन भाव अच्छी कुण्डलिया बधाई स्वीकार करें
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