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क्या कहूँ , क्या लिखूँ ( अतुकांत ) गिरिराज भंडारी

क्या कहूँ , क्या लिखूँ

************************

ऊंची से और ऊंची होती इमारतें

महल नुमां ,

प्राकृतिक धूप , हवा भी

छीन लेने को लालायित  

ग़रीबों के हिस्से से

दिमाग़ के अन्दरूनी किसी कमरे मे

भरा हुआ है

इससे उपजा विरोध !!!

बजबजाती नालियों के किनारे

गन्धाती गलियों में

टूटी फूटी ,आधी अधूरी

चूहती ,सीलती झोपडियाँ

नंगे, अधनंगे ,रोते चिल्लाते

भूख से कलपते बच्चे

असहाय , लाचार माँ-बाप

और उसके बाद भी

साजिशें , महलों की

झोपड़ियाँ भी छीन लेने की

सब कुछ है एक साथ

ज़ेहन मे है मेरे !!!!

और वो चादर भी

जो कभी पूरी न पड़ी

मध्यम को

खींच तान की जायी

चिंतायें , परेशानियाँ

बड़े बनने की चाहत में

बिगड़्ते रास्ते

बिकते ज़मीर

खोते ,दूर होते रिश्ते

रोती, सुखद परम्परायें

व्यथित संस्कृति

हावी होती निर्ल्लजता

सब कुछ है एक साथ !!!!!

और साथ है

राज नैतिक अभिप्साओं की देन

मज़हबी दंगे ,

दंगो मे मरते निर्दोष

लूट , भ्रष्टाचार

नैतिकता अनैतिकता पर निर्जीव बहस

कुर्सी के लिये अन्धी दौड़

चहल क़दमी करते है

सब एक साथ , मेरी सोच के साथ !!!!!!

कुछ शुभ भी है

मेरे दोस्त , अहबाब ,

आत्मीय रिश्ते

जिनसे पाता हूँ रोज़ भर के लिये

जीने की शक्ति ,

प्राण वायु

रोजी हिसाब से

और जी लेता हूँ रोज़

एक दिन का जीवन !!!!!!

एक साथ है

सब कुछ

गड्ड मड्ड

क्या कहूँ , क्या लिखूँ ऐसा

कि कोई कह दे ,

वाह !!!!!!!!!!!!!!

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 19, 2013 at 6:35pm

आदरनीय जीतेन्द भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ !!!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 19, 2013 at 6:34pm

आदरणीय नीरज भाई , रचना की सराहन और उत्साह वर्धन  के लिये आपका हार्दिक आभार !!!!!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 19, 2013 at 6:33pm

आदरणीया मीना जी , रचना की सराहना के लिये आपका आभार !!!!

Comment by विजय मिश्र on October 19, 2013 at 5:14pm
आ ० राजेश कुमारीजी , ठीक ऐसा मैंने भुगता जब आपकी एक बहुत ही जीवन्त कविता पर टिपण्णी कर रहा था ,अन्तः से दुखी हुआ था .मुझे लगा कि उन्हीं भावों को उन्हीं शव्दों के साथ दुबारा नहीं सजा पाऊंगा और मैंने दुबारा प्रयास नहीं किया . आये दिन की घटना है ये .दुखी न हों ,ऐसा होता है ,
Comment by विजय मिश्र on October 19, 2013 at 5:09pm
भलमनसाहत की बेचारगी . साफ़ -सुथरा होने का दुःख . सफल अभिव्यक्ति है गिरिराजजी
Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on October 19, 2013 at 1:55pm

बहुत सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय बधाई हो बहुत बहुत बधाई हो

Comment by vijay nikore on October 19, 2013 at 12:50pm

आपकी कलम ने हमारे समाज की सच्चाई की इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति दी है ...

आपको मेरी हार्दिक बधाई, आदरणीय गिरिराज जी।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 19, 2013 at 12:13pm

आज न जाने क्या प्रोब्लम आ रही है नेट में मेरे दो कमेन्ट उड़ चुके,अभी आपकी रचना पर बहुत बड़ा कमेन्ट दिया था वो भी गायब हो गया ,चलिए फिर से देती हूँ बहुत अच्छी प्रस्तुति है जिन्दगी की भाग दौड़ ,परिस्थतियों से उपजे भाव की उहापोह से निकले शब्द पढ़ कर मैं तो वाह ही कहूँगी ,बहुत बहुत बधाई आदरणीय


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 19, 2013 at 11:33am

विकास और इससे उपजी विसंगतियों को आपने शब्दबद्ध करने का प्रयास किया है, आदरणीय. 

आपकी रचना से आपके लेखन की संभावनाएँ निखर कर आ रही हैं.

सादर

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 19, 2013 at 10:37am

सुंदर भाव, अथाह गहराई, अति उत्तम रचना, बधाई स्वीकारें आदरणीय गिरिराज जी

कृपया ध्यान दे...

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