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हाँफता काँपता सा

हाथी भागा जा रहा था

चीखता हुआ

‘वो निकाल लेना चाहते हैं

मेरे दाँत

सजाएँगे उन्हें

अपने दीवानखाने में

मूर्तियाँ बनाकर

जैसे पेड़ों को छीलकर

बना डालीं फाइलें

और प्रेमपत्र।‘

- बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

 

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Comment by बृजेश नीरज on September 3, 2013 at 10:48pm

आदरणीय गिरिराज जी आपका हार्दिक आभार!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 3, 2013 at 10:32pm

बृजेश भाई , सच मे इंसानों की हैवानियत से जानवर भी कम्पित ही होंगे !! बहुत अच्छी रचना !! बधाई !!

Comment by बृजेश नीरज on September 3, 2013 at 10:20pm

आदरणीय राज जी आपका बहुत आभार!

Comment by बृजेश नीरज on September 3, 2013 at 10:20pm

आदरणीय रमेश जी बहुत धन्यवाद!

Comment by बृजेश नीरज on September 3, 2013 at 10:19pm

आदरणीय राम भाई आपका हार्दिक आभार!

Comment by राज़ नवादवी on September 3, 2013 at 10:14pm

भाव एवं अभिव्यक्ति- दोनों ही सुन्दर हैं! 

Comment by रमेश कुमार चौहान on September 3, 2013 at 10:11pm

सहज किंतु गंभीर रचना । कोटिश बधाई

Comment by ram shiromani pathak on September 3, 2013 at 9:24pm

जैसे पेड़ों को छीलकर

बना डालीं फाइलें

और प्रेमपत्र।‘////वाह भाई अनुपम रचना। ….दिखने में छोटी मगर भाव बहुत बड़े ………बहुत बहुत बधाई आदरणीय ब्रिजेश भाई //सादर 

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