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राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने-५५-५६ (तरुणावस्था-२ व ३)

(आज से करीब ३२ साल पहले)

 

शनिवार ०४/०४/१९८१; नवादा, बिहार

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आज भी दवा मुझपे हावी रही. स्कूल से घर आने के बाद कुछ पढ़ाई की. परन्तु जैसे किसी बाहरी नियंत्रण में आकर मुझे पढ़ाई रोकनी पड़ी. ऊपर गया और मां से खाना माँगा. मगर ठीक से खाया भी नहीं गया. एक घंटे के बाद चाय के एक प्याले के साथ मैं वापिस नीचे अपने कमरे आया. कलम कापी उठाई और लिखने बैठ गया. मन कुछ हल्का हुआ.

 

मैंने ऐसा महसूस किया कि दवा का प्रभाव खाने के तीसरे दिन के तीसरे प्रहर तक बना रहता है क्योंकि शाम के बाद से मैं औषधि-प्रभावित मनःस्थिति से जैसे बाहर निकलने लगा था हालांकि आज फिर से दवा खाने की कल्पना से मैं मन ही मन डरने भी लगा था.

 

आज शाम को डॉक्टर गुड्डी दादी को देखने आने वाले हैं. वो अभी कुछ दिन हमारे घर पे ही रहेंगी. मुझे ये सोच कर थोड़ी खुशी भी हुई मगर उनका थका और बीमार चेहरा देखकर मैं फिर से उदास हो गया. दादी ने मुझे इशारे से अपने पास बुलाया और बैठने को कहा. उनसे मेरे हाल का कुछ भी नहीं छुपा था. उन्होंने जबरन अपने चेहरे पे मुस्कान की कुछ लकीरों को लाते हुए और मेरे सर पे हाथ फेरते हुए कहा- “घबराओ मत, मैं जल्दी ही ठीक हो जाउंगी”.  

 

© राज़ नवादवी

‘मेरी मौलिक व अप्रकाशित रचना’

 

शनिवार ३०/०५/१९८१; नवादा, बिहार

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गुड्डी दादी नहीं रहीं. यह खबर मेरे लिए किसी विद्युत्-सन्निपात से कम नहीं थी. हठात ये विश्वास ही नहीं हुआ कि छोटे कद, अंडाकार चेहरे, नुकीली नाक और दो छोटी छोटी आँखों और झुकी कमर वाली दादी अब हमारे बीच नहीं हैं.

 

कुछ दिन पहले ही उनका प्लास्टर उतारा गया था जिसके बाद वो हमारे घर से पड़ोस के ही मुसलमान बस्ती में स्थित अपने घर अपने बेटे और बहुओं के साथ रहने चली गई थीं. जब तक वो हमारे साथ थीं, उनके खाने-पीने, शौच और आराम के लिए मुस्तैद दल में मैं भी शामिल था. मेरे अलावा हमारे घर की धाई, जिन्हें हम ‘बिलाय फुआ’ कहते थे, और उनका बेटा विजय भी इस दल में शामिल था. उन्हें बिस्तर से शौचालय ले जाने और लाने में २-३ लोगों की ज़रुरत तो पड़ती ही थी. बिस्तर से शौचालय तक और शौचालय से वापसी के सफ़र में मैंने उन्हें कितनी ही बार दर्द से बुरी तरह कराहते देखा था. उन क्षणों में मैं एक प्रकार के अपराध भाव से भी पीड़ित हो जाता था कि यह सब कुछ मेरे कारण ही हुआ- न दादी को मेरे अकेलेपन से भय लगने के कारण मेरे कमरे में सोना पड़ता और न ही उनके गिरने की नौबत आती. 

 

उनका बड़ा बेटा जो घर का मुखिया है, और जिसकी उम्र करीब ४५-५० की है, हाथ से बीड़ी बनाकर बेचने का एक छोटा कारोबार करता है जिसपे सारा कुनबा निर्भर है; उनकी मार्केट में बीड़ी-सिगरेट बेचने की एक छोटी दुकान भी है जहां कई अन्य छोटी मोटी चीज़ें भी मिला करती हैं. हमने बचपन में न जाने कितनी बार उस दूकान से च्युंगम, पाचक, टाफी, लेमनचूस, इत्यादि जैसे चीज़ें खरीदी होंगी. सामने बांस से बनी सूप पे रखी तम्बाकू को हाथों से बीड़ी के पत्तों में लपेटते और धागे से बांधते हुए भी वो हमें प्यार और विनम्रता भरी एक नज़र से देखने से नहीं चूकते. वो अक्सरहा हमारी अपनी दादी को याद करते और कहते कि वो बहुत नेक थीं और उनके बहुत एहसान हैं हमपे.

 

हम आखरी बार गुड्डी दादी को देखने उनके घर गए. एक भीड़ सी जमा थी वहाँ. दादी तो दिखी नहीं. हाँ, बिलकुल नए एवं सुफेद कपड़े के एक खोल में किसी पार्सल की तरह पैक की हुई बांस के जनाज़े पे गठरी सी कोई चीज़ लिटा के रखी थी जिसे धागे से अच्छी तरह सिल के पूरी तरह से बंद कर दिया गया था. हमें बताया गया कि यही गुड्डी दादी हैं. हमें पहुँचने में देर हो चुकी थी और अब जो हमें देखने को मिला था उसे हठात आत्मसात कर पाना बहुत मुश्किल था. चलता फिरता आदमी कैसे मफ्लूज़ होकर एक बेजान सी मूरत में तबदील हो जाता है!

 

घर वापिस आकर मैं सबसे पहले अपने कमरे में गया और आँखे बंद कर कुर्सी पर बैठ कर अपने आप में खो सा गया मानो बाहरी दुनिया में तेज़ी से बदल रहे घटनाक्रमों को भुला देना चाहता हूँ.

 

मुझे लगा जैसे गुड्डी दादी वहीं कहीं आसपास हैं और मुझसे कुछ कह रही हों- 

 

‘अकेलेपन से क्यूँ डरते हो बेटा? हम जब अकेले होते हैं तो अल्लाह हमारे साथ होता है. हम अकेले ही आए हैं और अकेले ही जाएंगे. तुम्हें अभी एक लंबा सफ़र तय करना है. अपने अन्दर खालीपन पैदा करो ताकि तुम्हें अपनी वास्तविक ख़ुदी का इल्म हो सके. मेरी दुआएं हमेशा तुम्हारे साथ हैं. आमीन’.    

 

© राज़ नवादवी 

‘मेरी मौलिक व अप्रकाशित रचना’

  

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Comment by राज़ नवादवी on August 22, 2013 at 11:31pm

भाई नीरज जी, मुझे अच्छा लगा कि आपको मेरी डायरी पड़कर अच्छा लगा. आपके उत्साहवर्धन का हार्दिक आभार! 

Comment by Neeraj Nishchal on August 22, 2013 at 10:04pm

राज साहब आपके उस दिन की डायरी का राज मेरे को आज समझ में आया है
आप लिखते रहिये मुझे इंतज़ार रहेगा मुझे सच्ची घटना पढने में मज़ा है
और आपने तो वैसे ही लिखी हैं जैसे घटी हैं पूरी प्राकृतिक ढंग से
बहुत अच्छा लग रहा है आपके संस्मरण पढ़ कर ।
शुभ कामनाएं .

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