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तुम स्त्री हो ...

सावधान रहो

सतर्क रहो

किस किस से

कब कब

कहाँ कहाँ

हमेशा रहो

हरदम रहो

जागते हुए भी

सोते हुए भी

क्या कहा ?

ख्वाब देखती हो

किसने कहा था

बंद करो

कल्पना की कूची से

आसमान में रंग भरना

उड़ना चाहती हो ?

क़तर डालो पंखो को

अभी के अभी

ओफ्फ तुम मुस्कुराती हो

अरे तुम तो खिलखिलाती भी हो

बंद करो आँखों में

काजल भरना और

हिरणी सी कुलाचे भर

भवरों संग गुंजन करना

यही तो दोष तुम्हारा  है

शोक गीत गाओ

भूल गयी

तुम स्त्री हो !

किसी भी उम्र की हो

क्या फर्क पड़ता है

आदम की भूख

उम्र नहीं देखती

ना ही  देखती है

देश धर्म औ जात

बस सूंघती है

मादा गंध

 

 मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on August 4, 2013 at 5:55pm

वाह महिमा जी, एक स्त्री की व्यथा को आपने बखूबी व्यक्त किया है इस खूबसूरत रचना के लिये बधाई स्वीकार करें

Comment by MAHIMA SHREE on August 4, 2013 at 2:23pm

आपका हार्दिक आभार आदरणीय राणा प्रताप जी


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on August 3, 2013 at 11:22pm

इस सशक्त रचना के लिए हार्दिक बधाई|

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