इस आधुनिक और भागमभाग जिंदगी में यदि किसी चीज़ का अकाल पड़ा है तो वो समय है कोई किसी से बिना मतलब मिलना नहीं चाहता यदि आप किसी से मिलना चाहो तो उसके पास टाइम नही है। और मजबूरी वश या अनजाने में यदि मिलना भी पड़ जायें तो मात्र दिखावटी प्यार व चन्द रटी रटाई बातें करने के बाद मौका मिलते ही “आओ ना कभी ” कह कर बात खत्म करने की कोशिश की जाती है और सामने वाला भी तुरन्त आपकी मंशा समझ कर टाइम ही नही मिलता का नपा तुला जवाब देकर इतिश्री कर लेता है। लगता है जैसे एक दूसरे से विदाई लेने का यह आधुनिक तरीका विकसित हो गया है। वो समय चला गया जब एक दूसरे से हाथ जोड़कर माफी मांगते हुए विदा ली जाती थी। प्रतिदिन की तेज रफतार जिंदगी में हम ना जाने कहाँ खोते जा रहे हैं।
यदि हम इसके पीछे छिपे कारण को तलाशना चाहे तो उसमें मुख्य रूप से आज के आधुनिक परिवेश को पायेंगे। इस विषय में आगे बात करने से पहले यह स्पष्ट करना जरूरी है कि आधुनिकता को सौ प्रतिशत खराब कह देना भी उचित नही है किसी का अच्छा या खराब होना मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि हम हमारे परिवेश में आधुनिकता के किस रूप को अपना रहे हैं।
अब वापस अपने मूल विषय पर आ जाते हैं यदि समयाभाव या एकल होने की बढ़ती प्रवृति का किसी से कारण जानने कि कोशिश कि जायें तो आधुनिकता को इसका कसूरवार बताया जाता है कुछ हद तक यह सच भी लगता है आज सभी की लाइफ स्टाइल कुछ ज्यादा ही आधुनिक हो गई है जिसमें संस्कारों का महत्व कम हो गया है ।
पाश्चात्य बनने की होड़ ने हमारी तथाकथित पढ़े लिखे युवाओं के विचारों को बदल दिया है और यह बदलाव अब उनके द्वारा की जाने वाली आधुनिक टिप्पणियों जिनकी भाषा ज्यादातर अमर्यादित होती है, के रूप में सुनाई देने लगी है अर्थात सटीक वाणी के नाम पर जो जितने अधिक दिल को चोट पहुंचाने वाले शब्दों का इस्तेमाल करेगा उतना ही अधिक फारवर्ड और मार्डन कहलाने लगा है। जो संस्कारी युवा पढ़ लिख कर भी आदर सम्मान की भाषा बोलते है उन्हें पिछड़ा और कमजोर माना जाता है ।
इस आधुनिकता ने हमारे समाज के सबसे सुन्दर और हमारी पहचान समझे जाने वाले हमारे पौराणिक और सभ्य पहनावे पर भी गंभीर चोट की है और इसमें टी आर पी बढ़ाने के चक्कर में हमारे टी वी सीरियलों का भी महत्वपूर्ण योगदान है आज पढ़ा लिखा समाज अपने बच्चों को फैशन के नाम पर फूहड़पन लिये हुए कपड़े पहना रहा है और कुछ युवा स्वयं भी ऐसे ही कपड़े पहन रहे हैं वे समझते हैं कि जो जितने कम और फूहड़पन लिये कपड़े पहनेगा उतना ही आधुनिक और फैशनेबल कहलायेगा। सबका ध्यान उसकी तरफ आकर्षित होगा। ये अलग बात है कि लज्जा पहनने वाले को नही बल्कि देखने वाले को आती है। और सभी उसकी निंदा अपने अपने घर जाकर ही करते हैं, मार्डन दिखने वालों को इस बात का भान नही होता है कि देखने वाले लोग तुम्हारे फैशन को नही बल्कि बदन को देख कर तुम्हें ही बुरा समझ रहे हैं। क्यूं ना उसी समय ऐसे पढ़े लिखे पाश्चात्य के अंध भक्तो को उनके पहनावे की असलियत बता दी जायें हो सकता है आइंदा वो पहनावे का ध्यान रख सकें ।
हम सभी जानते हैं कि आज के इस प्रतिस्पर्धा वाले युग में हमारे युवा कड़ी मेहनत व अधिक फीस देकर पढ़ाई पूर्ण करते हैं फिर दिन रात किसी मल्टी नेशनल कम्पनी में जी तोड़ मेहनत करते हैं और दिन रात काम के तनाव में अपने जीवन के स्वर्णीम समय को पुरा का पुरा धन कमाने में ही लगा रहे हैं और नित नये इलैक्ट्रोनिक गजेटस् , गाड़ियां और फर्निचर खरीदने में सिमट कर अपना सुख तलाश रहे है। आज की युवा पीढ़ी एकल रहकर इन्ही के भरोसे अपनी दुनिया रंगीन बनाने में लगी है लेकिन वास्तविकता में जब तक सब कुछ सही चलता रहा तो ठीक वर्ना बढ़ते तलाक और डिप्रेशन के मरीज खुद ब खुद बता रहें हैं कि हमारी युवा पीढ़ी अपनी दुनियां रंगीन बना रही है या रंग हीन बना रही है। काम का बढ़ता बोझ युवाओं को युवावस्था में ही बीपी शुगर आदि विभिन्न बिमारियों का शिकार बना रहा है। जिन भौतिक वस्तुओं को खरीद कर युवा उनके मद में स्वयं को महान और बड़ा आदमी समझने की भूल कर रहा है वे वस्तुएं सप्ताह के पाँच दिन घर में या तो बेकार पड़ी रहती हैं या उनके घरों में नौकर उन वस्तुओं का उपयोग कर रहे है। शायद वो मालिक से ज्यादा भाग्यशाली हैं।
अभी कुछ दिन पहले एक एस एम एस पढ़ने को मिला कि हमारे देश में पिज्जा पहले पहुंचता है और एम्बूलेंस बाद में पहूँचती है, पढ़कर शायद अच्छा नही लगे लेकिन खुले दिल से सोचा जाएं तो इसमें कहीं ना कहीं सच्चाई छिपी है।
आधुनिकता ने हमें कुछ लाभ अवश्य हुआ है जैसे हमारी युवा पीढ़ी की सोच पहले से ज्यादा व्यापक हुई है वह विश्व पटल पर ज्यादा सशक्त रूप से अपना परचम लहराने लगा है और अपनी सकारात्मक सोच व अर्जित क्षमता के कारण आगे बढ़ा है। बस उसे आवश्यकता तो आधुनिकता के साथ साथ अपने मूल स्वरूप, रहन सहन आदर्श, नैतिकता,मर्यादा का सही समावेश करने की है। आज आधुनिकता के कारण हम से मैं में बदलती सोच को त्यागने या सुधारने की जरूरत है, बेतहाशा होड़ में पड़कर ई एम आई रूपी सूदखोर से उपर उठने की है। तथा ई एम आई के उपयोग को जीवन की अहम् आवश्यकताओं मकान, शिक्षा तक ही सीमित रखने की है उसे उपभेक्तावादी आधुनिक अल्प समय काल वाली वस्तुओं पर खर्च करने की नही है।
अन्त में कहना चाहूँगा कि आधुनिकता के नाम पर रिश्तों को खोने की बुनियाद पर सुखी होने {वास्तव में नही} से अच्छा होगा रिश्तों के साथ परम सुख का आनन्द उठाना जो हमारे पूर्वज करते आये हैं। हमें अपनी जड़े अपनी संस्कृति के धरातल में ही रखकर आधुनिकता के फलों का आनन्द लेने की क्षमता अपने अन्दर विकसित करनी होगी तभी हम सही जीवन शैली का आनन्द उठा पायेंगे।
डी पी माथुर
! मौलिक एवं अप्रकाशित !
Comment
आदरणीय विजय निकोर सर एवं सुरेन्द्र वर्मा सर सादर प्रणाम , आपकी टिप्पणी देर से देख पाया अतः आभार में देरी के लिए क्षमा मांगता हूँ !
आपने समय निकाल कर इस रचना को पढ़ा और मुझे प्रोत्साहित किया इसके लिए आपका आभार एवं धन्यवाद ! आगे भी इसी तरह आर्शिवाद बनाये रखें !
आदरणीय माथुर साहेब,
सार्थक चर्चा बाजारवाद और भौतिकता की पैठ पर, बधाई। आधुनिकता से सम्बद्ध लगभग सभी पहलुओं पर सटीक दृष्टि डाली है. कुछ विवशताएँ भी हैं: असुरक्षा की भावना बढ़ने के कारण भी व्यक्ति एकाकी, एकांगी और असहिष्णु भी होता जा रहा है. रिश्तों का निर्वाह तथाकथित रूप में स्वयं को सामाजिक दिखाने भर के लिए होने पर भी अभी हमारे भावनात्मक पक्ष का समापन पूरा नहीं हुआ है, आपके जैसे लिखे आलेख पढ़ कर चेतना भी जागृत रहती है. पिज्जा और एम्बूलेंस के दृष्टान्त पर याद आया, कहीं पढ़ा था कि पहले सबके पास घडी नहीं होती थी, पर समय अवश्य होता था, आज हर किसी के पास घडी है, पर समय किसी के पास नहीं. जितना हम अपने पारिवारिक और सामाजिक संबंधो के प्रति सजग और संवेदनशील रहेंगे, हमारी वास्तविक खुशियाँ बनी और बढती रहेंगी. पुनः बधाई, इस सुन्दर कलेवर को अपने परिचितों के साथ बाँट रहा हूँ.
सादर,
सुरेन्द्र वर्मा
आदरणीय माथुर जी:
आज की आधुनिकता एक दम खोखली है।
इस सार्थक चर्चा के लिए बधाई।
सादर,
विजय निकोर
आप सभी साहित्यकारों ने आलेख पर अपनी टिप्पणी कर मुझे प्रोत्साहित किया इसके लिए आप सभी का हृदय से आभार !
बहुत सार्थक और सटीक लेख, बधाई आप को
अत्यंत ज्वलंत मुद्दे उठायें है आपने , आज सचमुच इस अंधी दौड़ पर पुनर्विचार ज़रूरी है ..हम किधर जा रहे हैं ..इसका हासिल क्या है ..क्या यही हमारा ..साध्य था ..
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जिन भौतिक वस्तुओं को खरीद कर युवा उनके मद में स्वयं को महान और बड़ा आदमी समझने की भूल कर रहा है वे वस्तुएं सप्ताह के पाँच दिन घर में या तो बेकार पड़ी रहती हैं या उनके घरों में नौकर उन वस्तुओं का उपयोग कर रहे है। शायद वो मालिक से ज्यादा भाग्यशाली हैं।
अभी कुछ दिन पहले एक एस एम एस पढ़ने को मिला कि हमारे देश में पिज्जा पहले पहुंचता है और एम्बूलेंस बाद में पहूँचती है, पढ़कर शायद अच्छा नही लगे लेकिन खुले दिल से सोचा जाएं तो इसमें कहीं ना कहीं सच्चाई छिपी है।'
सार्थक सशक्त और सटीक लेखन के लिये हार्दिक साधुवाद आपका श्री माथुर जी !!
आदरणीय डी. पी. माथुर जी,
सच! आपने एक बहुत ही सही विषय पर ,अपना विचार प्रगट किया, आज के समय में आधुनिकता से बहुत व्यापकता मिली है, तो कहीं न कहीं रिश्तों में दूरियां बड़ी हैं| हर व्यक्ति अकेलेपन का शौकीन हो गया है, और जब अनेक समस्यायें घेर लेती है तो डिप्रेस होने लगता है| व्यक्ति को अगर, दुसरे व्यक्ति पर गुस्सा आता है, तुरंत फ़ोन लगाकर अपना सारा गुस्सा उस पर उतार देता है, जबकि पुराने समय में जाय तो, मिलने तक का समय उस गुस्से को ठंडा कर देता था, और दूरियां नही बड पाती थी|
आज का इंसान बंद कमरे में , नेट या अन्य इलेक्ट्रोनिक साधनों से अपना समय व्यतीत कर रहा है, जो वास्तविक जीवन को कमजोर बनाता है, जबकि पुराने समय में , एक दुसरे से मिलजुल कर, सुख दुःख में साथ खड़े होकर जीवन व्यतीत हो जाता था|
सटीक रचना पर आपको हार्दिक बधाई व् शुभकामनायें
आदरणीया विनीता जी आपका आभार !
अत्यंत ज्वलंत समसामयिक विषय पर, सार्थक एवं प्रभावी चर्चा. बधाई आपको.
वास्तव में सही विषय है! आज के जिंदगी में बाजारवाद और भौतिकता ने इस कदर पैठ बना ली है कि आदमी बिना स्वार्थ के किसी को समय नहीं देना चाहता है। मैं भी टिप्पणी कर रहा हूं तो इस लालच में कि आप भी मेरी रचना पर टिप्पणी करेंगे। इस भौतिकवादी स्वार्थ में लोग अब रिश्तों का सिर्फ अपने लाभ के लिए दोहन करने में लगे हैं।
इस सुन्दर लेख के लिए आपका साधुवाद!
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