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ग़ज़ल : ख़ुदा को मस्जिद में पा गया जो वो दौड़ मयखाने जा रहा है

बहर : १२१२२ १२१२२ १२१२२ १२१२२

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नहीं मिला जो जहाँ में जिसको वही उसे खींचता रहा है

ख़ुदा को मस्जिद में पा गया जो वो दौड़ मयखाने जा रहा है

 

वो जिसने माँगी थी सीट मुझसे ये कहके ईश्वर भला करेगा

जरा सा आराम पा गया तो मुझी को अब वो भगा रहा है

 

दवा से जो ठीक हो रहा था उसे पिलाया पवित्र पानी

जो दिन में अच्छा भला था कल तक वो रात भर चीखता रहा है  

 

ख़ुदा का घर सब जिसे समझते वहीं हजारों हुये लापता

बने रहें नासमझ भले हम वो हिंट दे मुस्कुरा रहा है 

 

हैं पाप इतना बढ़े के अब तो प्रलय करेंगे स्वयं प्रभो जी

विफल हुए सब अचूक मंतर तो धर्म ऐसे डरा रहा है

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(मौलिक एवम् अप्रकाशित)

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Comment by वीनस केसरी on July 11, 2013 at 1:47am

बहुत खूब धर्मेन्द्र भाई
सबसे पहले तो इस बहर पर काम करने के लिए बधाई स्वीकारें ... और आगे फिर से बधाई स्वीकारें कि ऐसी कठिन बहर में भी अपने अपना लहजा काइम रखा ...

हाँ एक मिसरे में लय लापता हुई है उसे फिर से देख लें ...

Comment by ram shiromani pathak on July 10, 2013 at 6:14pm

आदरणीय धर्मेन्द्र  जी बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल हुई है //हार्दिक बधाई 

Comment by aman kumar on July 9, 2013 at 2:07pm

बढिया भाई !

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