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कुरुक्षेत्र.......

शाम ढले खड़ा था खिड़की पर,

अपने इतिहास से वर्तमान...

का संगम कराने....

किन्तु इस मिलन बेला मे....

न जाने कहाँ से तुम आ गई.....

और फिर आरंभ हुई.....

एक लंबी कशमकश.......

कभी मैं तुम पर आरोप धरता....

कभी खुद को अपराधी ठहराता......

कभी अपनी जीत

पर खुशी....

कभी हार पर गम......

तभी गर के दरवाजे पर दस्तक हुई......

कुछ दोस्त थे.....

उनके साथ निकल पड़ा.....

इस अन्तर्मन के कुरुक्षेत्र से कहीं दूर......

बहुत दूर.....!!!!!!

KAVI DEEPENDRA

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Comment

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Comment by KAVI DEEPENDRA on May 11, 2013 at 4:33pm

बृजेश जी आपका आभार....

Comment by बृजेश नीरज on May 11, 2013 at 1:22pm

अच्छा प्रयास है आपका! बधाई! 

Comment by KAVI DEEPENDRA on May 10, 2013 at 7:23pm

प्रदीप जी बहुत-बहुत आभार....

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 10, 2013 at 6:12pm

सुन्दर अभिव्यक्ति 

सादर बधाई 

Comment by KAVI DEEPENDRA on May 10, 2013 at 7:38am

कुंती जी बहुत-बहुत आभार...

Comment by coontee mukerji on May 9, 2013 at 11:30pm

शाम ढले खड़ा था खिड़की पर,

अपने इतिहास से वर्तमान...

का संगम कराने....

किन्तु इस मिलन बेला मे....

न जाने कहाँ से तुम आ गई.....

और फिर आरंभ हुई.....

एक लंबी कशमकश..............बहुत सही लिखा है ....अगर  जिंदगी में यह  दूसरा न आये  तो दुःख  और अगर  आ जाए तो हज़ार  दुख .

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