कालाबाजारी ,भ्रष्टाचार , दरिंदगी ,व्यभिचार ,
बेशर्मी ,बेहूदगी ,बेचारगी ,बेरहमी ,बेहयाई ,
आतंकवाद ,जातिवाद ,भाई-भतीजावाद ,परिवारवाद ,
सब राजनीति में रास्ते हैं ,
पर क्या करें ,सरकार की मजबूरी है ,इन रास्तों से गुजरना पड़ता है .
हमें पता है पडौसी ,निर्दोष जनता में आतंक फैला रहा है ,
हमारे पास सबूत है ,हम करारा जवाब दे सकते हैं ,
हमारे पास तोपें है ,रॉकेट हैं ,जवानों की फ़ौज है ,
पर क्या करें ,सरकार की मजबूरी है,सब कुछ सहना पड़ता है
हमारे साथी लाखों करोड़ों का घपला करते हैं ,
कमीशन खाते हैं ,हमें भी खिलाते हैं ,सबको खिलाते हैं ,
चाहते हम भी हैं कि ईमानदारी से सरकार चलायें ,
पर क्या करें ,सरकार की मजबूरी है,सब कुछ करना पड़ता है
हम जानते हैं कुछ लोग पढाई में कमजोर हैं ,
तभी तो कम अंक से डाक्टर, इंजीनीयर बनाने पड़ते हैं ,
कौन नहीं चाहता प्रतिभा का सम्मान हो ,लायक आगे बढे ,
पर क्या करें ,सरकार की मजबूरी है,सब कुछ करना पड़ता है
देश की जनता पिस रही है महिलाओं की इज्जत दांव पर लगी है
गुंडे खुले आम घूम रहे हैं ,हमारा पैसा स्विस बैंक में पड़ा है
हमें सब पता है, गुंडों को भी जानते हैं ,पैसा किसका है जानते हैं
पर क्या करें ,सरकार की मजबूरी है,सब कुछ सहना पड़ता है
हमे भी पता है सारी व्यवस्था सड गल चुकी है ,
हम भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए हैं ,जनता ने हमे चुना है
हम पर जवाबदेही है,एक मिनिट में सरकार से बाहर आ सकते हैं
क्या करें सात पीढ़ी का ख़याल आ जाता है ,तभी तो सब कुछ सहना पड़ता है
Comment
लोकतंत्र के लोक से दूर जाने के ये संकेत हैं और इन निहितार्थों को आपने अपनी रचना में बहुत सुन्दरता से उकेरा है। आपको अतिशय बधाई।
परन्तु आदरणीय विनम्र निवेदन के साथ कह रहा हूं कि रचना की अत्यधिक गद्यात्मकता मुझे अखरी। आशा है आप इसे सिर्फ आग्रह ही समझेंगे आपत्ति नहीं।
सादर!
आदरणीय डॉ. दिलीप मित्तल साहब आपने जहां जहां सरकार की मजबूरी लिखा है मुझे सभी जगह वह बेशर्मी ही पढ़ने में आ रहा है.मगर अब देश में जाति धर्म अमीरी गरीबी जैसे नामो से इतनी फूट पड़ चुकी है की हम चाहकर भी ऐसी सरकार को हटा नहीं सकते तब अवश्य लगता है हम मजबूर हैं.
सरकार की मजबुरिया गिनाते हुए रचना के लिए बधाई डॉ दिलीप मित्तल जी|पर रचना को आइना मानने वाले आइना दिखाने
का कार्य करते है,सरकार चलाने में सक्षम सरकार चलाये वर्ना सरककर में बने रहना कैसी मज़बूरी है | इससे तो अच्छा है-
सत्ता मद को छोडिये, घटे देश की आन
सत्ता उसको दीजिये, बढे देश की शान |
आ0 मित्तल जी, अतिसुन्दर .कमीशन खाते हैं हमें भी खिलाते हैं सबको खिलाते हैं
चाहते हम भी हैं कि ईमानदारी से सरकार चलायें
पर क्या करें, सरकार की मजबूरी है,सब कुछ करना पड़ता है
.. हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
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