जो जुटाते अन्न, फाकों की सज़ा उनके लिए।
बो रहे जीवन, मगर जीवित चिता उनके लिए।
सींच हर उद्यान को, जो हाथ करते स्वर्ग सम,
नालियों के नर्क की, दूषित हवा उनके लिए।
जोड़ते जो मंज़िलें, माथे तगारी बोझ धर,
तंग चालों बीच जुड़ता, घोंसला उनके लिए।
झाड़ते हैं हर गली, हर रास्ते की धूल जो,
धूल ही होती दवा है, या दुआ उनके लिए।
गाँव वालों के सभी हक़, ले गए लोभी शहर,
सिर्फ सूनी गागरी, ठंडा तवा उनके लिए।
क्या पढ़ेंगे दीन कविता, गीत या कोई गजल,
भूख के भावों भरा, कोरा सफ़ा उनके लिए।
बेरहम शासन तले जो, घुट रहा है आम जन,
रहनुमाओं ने अभी तक, क्या किया उनके लिए।
*'शहर' शब्द का वज़न हिन्दी उच्चारण के अनुसार १+२लिया है।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय अनुराग जी, प्रशंसात्मक शब्दों के लिए हार्दिक धन्यवाद
आदरणीय तिलकराज जी, उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार
वाह यथार्थ चित्रित कर के रख दिया आपने नायाब गज़ल है
बधाई स्वीकारें
गाँव वालों के सभी हक़, ले गए लोभी शहर,
सिर्फ सूनी गागरी, ठंडा तवा उनके लिए।
एक और लाजवाब ग़ज़ल। बधाई।
प्रियंका जी, रचना की सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद...
गाँव वालों के सभी हक़, ले गए लोभी शहर,
सिर्फ सूनी गागरी, ठंडा तवा उनके लिए।
बहुत उम्दा बधाई कल्पना जी......
अशोक जी हार्दिक धन्यवाद...
सादर
आ॰ मनोज जी, रचना की सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद...
गाँव वालों के सभी हक़, ले गए लोभी शहर,
सिर्फ सूनी गागरी, ठंडा तवा उनके लिए।..............वाह! बहुत उम्दा शेर.
आदरणीया कल्पना रामानी जी सादर, बहुत सुन्दर गजल कही है सभी अशआर जानदार गाँव और शहर की विसंगतियों की कहानी. भरपूर दाद कुबूल फरमाएं.
लेकिन सौरभ जी, मुझसे किस बात की क्षमा? इस तरह से आप मुझे शर्मिंदा न करें। आप सबका स्नेह ही तो मुझे यहाँ बांधकर रखे हुए है। वेब पर डेढ़ वर्ष की अवधि में यह अभिव्यक्ति-अनुभूति के बाद दूसरा समूह है जहाँ ज्ञान और अपनापन मिला है। अधिक समूहों से जुड़ना मेरे स्वभाव में नहीं है क्योंकि इससे सीखने और लिखने का समय बंट जाता है। मैं बड़ी उम्र में साहित्य की दुनिया से जुड़ी हूँ, अब अधिकाधिक सीखना और लिखना चाहती हूँ, एक बार आपका पुनः धन्यवाद...सादर
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