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ग़ज़ल-पुराने दौर का कुर्ता

ग़ज़ल

किताबें मानता हूँ रट गया है
वो बच्चा ज़िंदगी से कट गया है|

है दहशत मुद्दतों से हमपर तारी
तमाशे को दिखाकर नट गया है |

धुंधलके में चला बाज़ार को मैं
फटा एक नोट मेरा सट गया है |

चलन उपहार का बढ़ना है अच्छा
मगर जो स्नेह था वो घट गया है |

पुराने दौर का कुर्ता है मेरा
मेरा कद छोटा उसमे अट गया है |

राजनीति में सेवा सादगी का
फलसफा रास्ते से हट गया है |

पिलाकर अंग्रेज़ी भाषा की घुट्टी
हमारा हक वो हमसे जट गया है |

ये फल और फूल सारे कागज़ी हैं
जड़ें बरगद की दीमक चट गया है |

Views: 458

Comment

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Comment by Abhinav Arun on November 29, 2010 at 4:00pm
shesh jee and ganesh jee please accept my thanks |

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 17, 2010 at 9:19pm
बेहतरीन और सटीक प्रहार , बहुत खूब , दाद कुबूल करे |
Comment by Abhinav Arun on November 15, 2010 at 2:10pm
आशीष जी नवीन जी शुक्रिया | आप लोगों का बड़प्पन है जो मेरी ग़ज़ल पढी और टिप्पणी लिखी |
Comment by आशीष यादव on November 13, 2010 at 7:31pm
waah abhinav sir, bilkul sahi baate hai ghazal me.
धुंधलके में चला बाज़ार को मैं
फटा एक नोट मेरा सट गया है
Comment by Abhinav Arun on November 13, 2010 at 2:57pm
राणा जी आभार ऐसी गज़लें संतोष देती हैं कम से कम समाज से शिकायतें इसी बहाने से सामने ला पाताहूँ |

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on November 13, 2010 at 2:03pm
बेहतरीन ..ग़ज़ल का मतला ही सारी कहानी बयान कर देता है, बहुत सुन्दर!!!!

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