आदरणीय गुरुजनों, मित्रों एवं पाठकों यह ग़ज़ल मैंने तरही मुशायरा अंक -३१, हेतु लिखी थी परन्तु समय न मिलने के कारण न तो प्रस्तुत कर सका और नहीं है मुशायरे में अच्छी तरह से भाग ले सका. क्षमा प्रार्थी हूँ सादर
बिना तेरे दिन हैं जुदाई के खलते,
कटे रात तन्हा टहलते - टहलते,
समय ने चली चाल ऐसी की प्राणी,
बदलता गया है बदलते - बदलते,
गिरे जो नज़र से फिसल के जरा भी,
उमर जाए फिर तो निकलते-निकलते,
किया शक हमेशा मेरी दिल्लगी पे,
यकीं जब हुआ रह गए हाँथ मलते,
भरम ही सही यार तेरी वफ़ा का,
जिए जा रहा हूँ ये आदत के चलते,
गुनाहों का मालिक खुदा बन गया है,
भलों को नहीं हैं भले काम फलते,
दवा से दुआ से नहीं तो नशे से,
बहल जायेगा दिल बहलते-बहलते
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरेया उपासना जी सराहने हेतु धन्यवाद सादर
आदरणीय अशोक सर ग़ज़ल आपको पसंद आई मेरे लिए सुखद है आभार सर
किया शक हमेशा मेरी दिल्लगी पे,
यकीं जब हुआ रह गए हाँथ मलते,.....बहुत सुन्दर
भाई अरुण जी सादर,मुशायरे में नही ब्लॉग पर सही, सुन्दर गजल प्रस्तुत की है.बधाई स्वीकारें.
समय ने चली चाल ऐसी की प्राणी,
बदलता गया है बदलते - बदलते,..............बिलकुल सही है वक्त ने काफी कुछ बदल दिया है.
गिरे जो नज़र से फिसल के जरा भी,
उमर जाए फिर तो निकलते-निकलते,...........बहुत खूब.
आदरणीय गुरुदेव श्री प्रणाम, आपका शिष्य बनने की भरपूर कोशिश कर रहा हूँ, यूँ ही जीवन के इस पथ पर आपके आशीष और सहयोग की आकांक्षा सदैव रहेगी, आपके मार्गदर्शन से कुछ अलग और अच्छा लिखने की ईच्छा परस्पर बनी रहती है, धीरे-धीरे कोशिश में हूँ की आपका लायक शिष्य बन सकूँ. सादर.
आभार पाठक साहब
मित्रवर संदीप जी आपने टिपण्णी के रूप में शे'र की पेशकश कर दिल खुश कर दिया. आभार
जो शेर आपकी ग़ज़ल में कोट करने लायक या कुछ कहने लायक हुए हैं, उन्हें पुनर्प्रस्तुत कर रहा हूँ -
बिना तेरे दिन हैं जुदाई के खलते,
कटे रात तन्हा टहलते - टहलते,
बढिया मतला हुआ है, अरुन जी. एक मनोभाव और मनोदशा विशेष का बढिया वर्णन हुआ है.
किया शक हमेशा मेरी दिल्लगी पे,
यकीं जब हुआ रह गए हाँथ मलते,
यह तो आप भी अवश्य जानते होंगे कि दिल्लगी और दिल की लगी में अंतर हुआ करता है. यहाँ सानी दिल की लगी की बात करता दिखता है.
भरम ही सही यार तेरी वफ़ा का,
जिए जा रहा हूँ ये आदत के चलते,
सानी को और कसा जा सकता था.
गुनाहों का मालिक खुदा बन गया है,
भलों को नहीं हैं भले काम फलते,
यह शेर कुछ जमा नहीं भाई. इसे थोड़ा स्पष्ट किया होता या मैं ही नहीं समझ पा रहा हूँ. उला और सानी में संबंध नहीं बन पा रहा.
दवा से दुआ से नहीं तो नशे से,
बहल जायेगा दिल बहलते-बहलते
अरे बाप रे .. . दिल को बहलाने के लिए गिना गया तीसरा विंदु तो बड़ा खतरनाक है भाई.. .
सुंदर रचना 'अनंत जी'
क्या बात है ,,,,,,,,,,,,,,,,,,
एक शेर मेरी और से भी
खुमार उतर ही नहीं रहा है
इधर भी उधर भी चले वो सँभलते
मगर यूँ सदा ही रहे हाथ मलते
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