ना जाने कब तुमने चुपके से
ये इश्क के बीज रोपित किये
मेरे सुकोमल ह्रदय में
की मैं बांवरी हो गई
तुम्हारी चाह में ,सांस लेने लगी
उस तिलस्मी फिजाँ में
रंग बिरंगे इन्द्रधनुष आकर लेने लगे
मेरी रग रग में
ऐ मेरे शिखर तुम्हारी गगन चुम्बी चोटी
भी अब सूक्ष्म और सुलभ लगने लगी
मुहब्बत के नशे में चूर
इश्क के जूनून में जंगली
घास बन ,फूलों के संग संग तुम्हारे
बदन पर रेंगती हुई
पंहुच गई तुम्हारे शीर्ष तक
और आलिंगन बद्ध कर लिया तुम्हे
तुमने एक बार भी नहीं पूछा
की मेरा मजहब क्या है
जैसे की तुम सब पहले से ही जानते थे
हर युग में हर राह में
हर रूप में तुम मुझे मिलते रहे
वो तुम ही थे जब
निर्विरोध ,निःस्वार्थ ,द्रुत गति
से बहती हुई ,रास्ते में नुकीले
पत्थरों कंटीली झाड़ियों से
जख्मी होती हुई तुम्हारी गोद में समा गई मैं
और ख़ुशी ख़ुशी विलीन हो गई
ये मेरे इश्क की इन्तहा ही तो थी
तुमने कब पूछा मेरा मजहब
उस वक़्त भी नहीं जब मैं
सारी रात कतरा कतरा जली
तुम्हारी चाहत में और तुम मेरे
पहलु में जान दे बैठे और
तुम्हारी मौत का इल्जाम मेरे सर लगा
अब तक इश्क का वो अंकुर
सघन दरख़्त बन चुका था
वो वक़्त हम कैसे भूल सकते हैं
जब मैं तुम्हारे ही प्यार में बावरी
हो बन बन में जोगन बन कर भटकती थी
वो भी तो मेरा जूनून ही था
तुम्हे पाने के लिए गरल भी पिया
पर तुम सब जानते थे
आज भी जानते हो की
इश्क ही मेरा मजहब है
सब खेल तुमने ही तो रचाया है
तुमने ही तो इश्क का बीज
इस माटी के बुत में अंकुरित किया
सदियों से हम यूँ ही रूप बदल बदल कर
इस दुनिया में इश्क और मुहब्बत
की खुशबू फैलाते चले आ रहे हैं
ताकि ये दुनिया प्यार की नीव पर टिकी रहे
द्वेष और वैमनस्य से बहुत दूर
एक खूब सूरत दुनिया
जो किसी मजहब ,
रंग रूप की मोहताज ना हो
पर आज क्यूँ तुमने
उस इश्क के फूल को
केक्टस बनने को मजबूर कर दिया
देखो ना कितने काँटे
उग आये हैं मेरे बदन में
,तुमने इक बार भी नहीं सोचा
इस माटी में अब केक्टस ही तो उगेंगे !!!
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Comment
हार्दिक आभार गणेश जी आप सही कह रहे हैं और उन प्रश्नों का उत्तर भी मिलना असंभव लगता है
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एक खूब सूरत दुनिया
जो किसी मजहब ,
रंग रूप की मोहताज ना हो
पर आज क्यूँ तुमने
उस इश्क के फूल को
केक्टस बनने को मजबूर कर दिया//
अच्छी रचना, आदरणीया राजेश जी , कुछ प्रश्न अपने पीछे अनेको प्रश्न छोड़ जाते हैं , बधाई स्वीकार करें आदरणीया ।
बहुत बहुत हार्दिक आभार आपका
इस संवेदनशील रचना के लिए बधाई।
योगी सारस्वत जी रचना आपके दिल तक पंहुच सकी हार्दिक आभार आपका
प्रिय प्राची रचना के मर्म ने आपके दिल तक राह बनाई ,हृदय से आभारी हूँ ,नारी के अस्तित्व में कांटे बोकर किस कोमलता मृदुता की अपेक्षा करेंगे लोग कांटे ही बोयेंगे कांटे ही काटेंगे ,भगवान् ने जिन दो बुतों में मुहब्बत के बीज बोये थे वो तो ख़त्म से ही हो गए हैं यही सब कहने का प्रयास किया है रचना में
ताकि ये दुनिया प्यार की नीव पर टिकी रहे
द्वेष और वैमनस्य से बहुत दूर
एक खूब सूरत दुनिया
जो किसी मजहब ,
रंग रूप की मोहताज ना हो
पर आज क्यूँ तुमने
उस इश्क के फूल को
केक्टस बनने को मजबूर कर दिया
बहुत सुन्दर भाव इस रचना के आदरणीय राजेश कुमारी जी.
हार्दिक बधाई इस संवेदनशील रचना पर. सादर.
आदरणीय विजय जी नारी का जीवन भी सागर की लहरों के सामान गिरता उछलता रहा है इतिहास साक्षी है इस बात का पर आज के वक़्त में तो उसका अस्तित्व ही खतरे में है जिससे दुनिया बनी है हार्दिक आभार आपका ये रचना आपके दिल को छू सकी
अंतर भावों का निर्बाध प्रवाह और अंत में एक सवाल
तुमने इक बार भी नहीं सोचा
इस माटी में अब केक्टस ही तो उगेंगे ???????? वाह!
बहुत सुन्दर भाव इस रचना के आदरणीय राजेश कुमारी जी.
हार्दिक बधाई इस संवेदनशील रचना पर. सादर.
आदरणीया राजेश कुमारी जी,
आपकी यह संवेदनशील रचना मन को छू गई...
इसे पढ़ते हुए सागर में लहर के समान मन कभी
उछला, मन कभी डूबा। बधाई।
विजय निकोर
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