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ग़ज़ल - खूब भटका है दर-ब-दर कोई

एक और ग़ज़ल पेश -ए- महफ़िल है,
इसे ताज़ा ग़ज़ल तो नहीं कह सकता, हाँ यह कि बहुत पुरानी भी नहीं है
गौर फरमाएँ

खूब भटका है दर-ब-दर कोई |

ले के लौटा है तब हुनर कोई |

अब पशेमां नहीं बशर कोई |
ख़ाक होगी नई सहर कोई |

हिचकियाँ बन्द ही नहीं होतीं,
सोचता होगा किस कदर कोई |

गमज़दा देखकर परिंदों को,
खुश कहाँ रह सका शज़र कोई |

धुंध ने ऐसी साजिशें रच दीं,
फिर न खिल पाई दोपहर कोई |

कोई खुशियों में खुश नहीं होता,

गम से रहता है बेखबर कोई |

पाँव को मंजिलों की कैद न दे,
बख्श दे मुझको फिर सफर कोई |

गम कि कुछ इन्तेहा नहीं होती,
फेर लेता है जब नज़र कोई |

सामने है तवील तन्हा सफर
मुन्तजिर है न मुन्तज़र कोई 

बेहयाई की हद भी है 'वीनस',
तुझपे होता नहीं असर कोई |

१३- ०५ - २०१२

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 17, 2012 at 10:32am

हिचकियाँ बन्द ही नहीं होतीं, 
सोचता होगा किस कदर कोई | 

धुंध ने ऐसी साजिशें रच दीं, 
फिर न खिल पाई दोपहर कोई |

गम कि कुछ इन्तेहा नहीं होती, 
फेर लेता है जब नज़र कोई |-----ये तीनो शेर तो सुभान अल्ला ,बढ़िया ग़ज़ल 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 17, 2012 at 10:20am

इस ग़ज़ल में मतला से हुआ शुरु सफ़र कई-कई जगह भौंचक कर रहा है. मतला तो एकदम से उपदेशपरक साखी सदृश है. और मसल की तरह प्रयुक्त होने लगे तो आश्चर्य नहीं. बहुत बढिया. मक्ता तो वाह-वाह ! वैसे व्यक्तिवाचक संज्ञाओं में मात्रा गिराना मैं उचित नहीं मानता. यों. मुझे अन्य अश’आर टुकड़ों में पसंद आये. वीनस वाली बात आवरण में है.

शिल्प पर कहूँ तो मतले के मिसरों से कुछ और ही वज़्न का भ्रम होता है. फिर भी हम २१२२ १२१२ २२  के वज़्न पर तक्तई करने लगे और कई जगह फँस गये, कि,  ये क्या हुआ, कैसे हुआ, (कब हुआ) क्यों हुआ.. . (फिर कहा) छोड़ो ये न सोचो... .    :-)))

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