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कहानी - नशा - वीनस केसरी

पांचवा दिन| घर बिखरा हुआ है, हर सामान अपने गलत जगह पर होने का अहसास करवा रहा है, फ्रिज के ऊपर पानी की खाली बोतलें पडी हैं, पता नहीं अंदर एकाध बची भी हैं या नही; बिस्तर पर चादर ऐसी पडी है की समझ नहीं आ रहा बिछी है या किसी ने यूं ही बिस्तर पर फेक दी है; कोई और देखे तो यही समझे की बिस्तर पर फेंक दी है, कोई भला इतनी गंदी चादर कैसे बिछा सकता है | शायद मानसी के जाने के दो या तीन दिन पहले से बिछी हुई है | बाहर बरामदे की डोरी पर मेरे कुछ कपड़ें फैले है | तार में कपड़ों के बीच कुछ जगह खाली है, कपडे गायब है, श्रीयांश के रहे होंगे |
साढ़े चार बज गए, श्रीयांश होता तो अब तक स्कूल से वापस आ गया होता ५ दिन से उसके स्कूल का भी नागा हो रहा है, मानसी को सोचना चाहिए | पहले भी इसी तरह जाती थी मगर तीन दिन में वापस आ जाती थी; ऐसा तो कभी नहीं हुआ की तीन दिन से अधिक रुकी हो | पहले तो श्रीयांश का स्कूल भी नहीं होता था, फिर भी दूसरे दिन फोन करने पर ही कहती थी “अच्छा कल आ जाउंगी” फिर इस बार क्यों...|उफ्फ... कुर्सी पर पड़े पड़े कमर अकड गई; थोड़ा टहल ही लूं... उठने की कोशिश में बेंत की कुर्सी जोर से काँपी और मैं फिर से धंस गया| कैसी बुरी आदत हो गई है; कुर्सी को कमरे और दालान के बीच डाल कर घंटों पड़े रहना और मानसी की गुस्साई आवाज़ का इंतज़ार करना “उठो भी”| आज भी शायद उसी “उठो भी” का इंतज़ार था, भूल ही गया था की “उठो भी” की आवाज भी मानसी के साथ ही पांच दिन पहले जा चुकी है और तीन दिन होने के बाद भी नहीं लौटी है| इस बीच दो ग़ज़ल कह ली, एक नज़्म और एक कविता भी लिख ली, आज तो कुछ लिखने का मन ही नहीं कर रहा,,, वैसे मानसी के जाने का एक फ़ायदा तो होता है ; थोड़ा एकांत मिल जाता है और कुछ लिखने पढ़ने का मन करता है, कल दूध वाला भी पूछ रहा था  “मालकिन नहीं लौंटी?” आज भी १ लीटर ही दूं ? तीन की जगह १ लीटर देने में बेचारे को बहुत कोफ़्त होती है सीधा सीधा आधा लीटर पानी का नुकसान होता है, आज तो दूध देने ही नहीं आया | क्या आज फिर से फोन करू ? कल भी तो किया था और परसों भी; मगर एक बार भी मानसी नें नहीं कहा “अच्छा कल आती हूँ” जाते समय तो उतना ही गुस्सा थी जितना हर बार होती थी; मगर जाते हुए कैसी बातें कर रही थी.. “अब तुम्हें किसी एक को चुनना ही होगा”
किन दो में से चुनना होगा? क्या चुनना होगा? क्यों चुना होगा? कुछ भी तो नहीं बताया, मगर शायद इसलिए की मुझे पता है किन दो की बात कही जा रही है |
पिछले चार दिन से “किसी एक को चुनना ही होगा” की प्रक्रिया चल रही है, समझ नहीं पा रहा की यह क्यों जरूरी है, जैसे इतने दिन से सब कुछ चल रहा है क्या आगे भी नहीं चल सकता ? क्यों चुनना है किसी एक को ? क्यों ? क्या मैं मानसी के बिना रह सकता हूँ, पता नहीं मैं कल्पना भी कैसे करू इस बात की| तो क्या फोन पर मानसी को कह दूं की, हाँ मानसी मैं तुम्हें चुनता हूँ, प्लीज़ अपने घर लौट आओ| सूरज ढल रहा है, उफ़! अब क्या जाऊँगा टहलने, अब तो कुछ काम ही किया जाए, किचन गया तो वह भी अपनी फूटी किस्मत पर जार जार रो चुकी बेवा की तरह लग रही थी, सफाई करने की सोच कर गया था मगर अब दराज़ से टोस्ट का पैकेट निकाल कर वापस कुर्सी पर आ गया हूँ फ्रिज से दूध का भगोना भी ले आया कल का थोड़ा सा दूध बचा है उसी में टोस्ट डुबो कर खाने लगा|
फिर से बरसात होने लगी है पानी की बौछार बरामदे से कुर्सी के पाए तक आ रही है, मानसी होती तो एक बार फिर से कहती “उठो भी” पिछले पांच दिन से जैसे जैसे दिन बीतते जा रहे हैं मेरा फैसला दृढ होता जा रहा है की मैं सब कुछ छोड़ सकता हूँ मगर मानसी को नहीं | आज फोन करके मानसी को अपना फैसला सूना दूंगा | कमरे की ओर झुक कर घड़ी देखा; सवा पांच बज गए, फैसला करके मन थोड़ा हल्का हो गया तो आँख बंद करके कुर्सी पर ही लुढक गया |

-

७ बज रहे हैं हाँथ में एक लिफाफा और दूसरे हाँथ में कुछ कागज़ लेकर फिर से उसी कुर्सी पर बैठा हूँ लिफाफा अभी कोरियर वाला दे गया है | बारिश रुक चुकी है | इस बीच दूध का भगोना रखने किचन गया था तो थोड़ी सी सफाई कर दी, बिस्तर पर नई चादर डाल दी, बोतल में पानी भर कर फ्रिज में लगा दिए और बाहर बरामदे से कपडे ला कर अलमारी में रख दिए, किताबें फैली थी उनको भी समेट दिया की घर लौटने पर मानसी को उसका घर कुछ तो उसका लगे, फोन करने जा रहा था की जब कोरियर वाला ये लिफाफा दे गया
भेजने वाले का नाम मानसी देख कर दिल जोर से धड़क गया और अब खोलने पर अंदर से निकले ५ पन्नों में लिखावट भी मानसी की ही है, लिखावट पहचान कर इतनी देर से पढ़ने की हिम्मत ही नहीं हो रही है, पता नहीं क्या सूझी मानसी को खत लिखने की, उलट पलट के पढ़ना शुरू किया

रवि,

कैसे हो, जानती हूँ अच्छे से नहीं होगे, पूरा घर फैला होगा और मेरे लौटने की राह देख रहे होगे; पहले के दो दिन में कोई गज़ल, कविता, नज़्म, कहानी या ये सारी चीजें लिख चुके होगे, तुम्हें यह चिट्ठी देख कर अजीब लग रहा होगा, मैं पहले यह चिट्ठी तुम्हारे हाँथ में दे कर आना चाहती थी, मगर लिख ही न सकी, लिखी ही न गई | मगर अब जब तुम दो दिन से फोन कर रहे हो तो लिख रही हूँ| मैंने घर से जाते समय तुमसे कहा था तुम्हें अब निर्णय लेना पडेगा की तुम्हें क्या छोडना है क्योकि एक को तो छोड़ना ही होगा, मगर मैं गलत थी, हाँ मैं गलत थी, क्योकि मैंने तुमको मुझमें और तुम्हारी कलम में से एक को छोड़ने को कहा था, तुमको कविता, कहानी, गज़ल से दूर हो जाने की बात कह दी मगर जब सोचना शुरू किया तो कई बातें खुल कर समझ आने लगीं| याद करो, कालेज में हम पहली बार मिले थे और हमारे मिलने का कारण बनी थी वो कविता जो तुम सीनियर्स को इंट्रो के समय सुना रहे थे  आज भी उसी ओज के स्वर में ये अन्तिम पंक्तियाँ मेरे जेह्न में विचरती हैं
नहीं हटूंगा, नहीं डरूंगा, अपने कर्म के पथ से,
कभी तो मंजिल मिलेगी मुझको, होगा जय का घोष |
सीनियर्स के कई ग्रुप जो किसी जूनियर को नहीं बख्श रहे थे वो भी तुम्हारी कविता से प्रभावित थे, सम्मोहित थे | हमने कविता पर बात करनी शुरू की जो कविता से शुरू होती और राजनीति, धर्म, दर्शन और न जाने किन किन बातों पर खत्म होती | समय बीतता गया और हम नज़दीक आते गए, पहला साल बीतते बीतते हम जान गए की भावनाओं को दोस्ती के दायरे में रख पाना अब संभव नहीं है, तुम्हारी कविताओं से प्यार करते करते मैं तुमसे प्यार करने लगी और तुम भी तो कुछ ऐसा ही सोचते थे
फिर शुरू हुआ प्यार का सिलसिला, रूठने मनाने का सिलसिला, मैं रूठ जाती तुम एक बढ़िया सी कविता लिख कर सुना देते और मैं मान जाती, सिलसिला चल निकला मैं बार बार रूठने लगी; तुम बार बार मनाने लगे; हर बार एक नई कविता, नई नज़्म, नई कहानी, और कभी नई गज़ल; कभी कभी मैं बिना कारण के ही तुम्हारी नई कविता के लिए तुमसे रूठ जाती थी और इस तरह दो साल और बीते
चौथे साल मुझे इस बात का एहसास होने लगा की तुम्हारी कविताओं की धार खत्म हो रही है, जब तुम खुश रहते हो सामान्य रहते हो तो जो कुछ लिखते हो वो भी सामान्य सा ही रह जाता, कुछ कमी सी नज़र आती और फिर जब हमारा झगडा होता तो तुम मुझे फिर चौंका देते; फिर वही तेवर, फिर वही ओज ... इस बीच मुझे यह भी लगाने लगा की तुम छोटी छोटी बात पर झगड पड़ते हो, झिडक देते हो, बहस करते हो मगर मैं कारण समझ न सकी |समझ तो मैं शादी के पांच साल तक नहीं पाई, मगर अब समझ आ रहा है शायद तुम भी समझ गए थे की तुम्हारी कविता मर रही है, तुम्हे जरूरत थी दुःख की, उस दर्द की जो मुझसे दूर रह कर तुम्हें हासिल होता था, जो तुम्हारी कविताओं में फिर से प्राण फूक देता था| शादी के बाद भी यही सब होता रहा, तुम लड़ते रहे, झगड़ते रहे, बिगड़ते रहे | जब जब तुम्हें लगा तुम्हारी कविता मर रही है तुम मुझसे लड़ते | तुम्हें कहानी, कविता गज़ल या नज़म लिखने का नशा नहीं हैं | रवि, तुम्हें नशा है दुःख का, दर्द का, गम का | आज तुम इस बात को स्वीकार कर लो की तुम्हारी ज़िंदगी में इस नशे से बढ़ कर कुछ नहीं है | यह तुम्हारा नशा ही है जो तुमसे कलम उठवाता है, तुम्हारी लेखनी में आग भरता है दुःख का नशा ही है जो तुमको मजबूर कर देता है कुछ लिखने पर और यह नशा ही है जिसने हमारी जिंदगी को बर्बाद कर के रख दिया | मैं गलत थी जो मैंने तुमसे कलम को छोड़ने की बात कही| तुम लिखना छोड़ ही नहीं सकते, जब जब तुम दुःख का नशा करोगे तब तब तुम लिखने को मजबूर हो जाओगे| पता नहीं यह बात मैं अब समझ पाई हूँ या शादी के समय ही समझ गई थी, शायद समझ तब ही गई थी मगर स्वीकार आज कर पाई हूँ क्योकि तभी तो शादी के बाद ही हर तीन चार महीने में बात-बेबात तुमसे बहस कर के दो दिन के लिए पापा के घर आ जाती थी जिससे तुम्हारी नशे की खुराक तुम्हें मिलती रहे, तुम लिखते रहो, मगर मैं यह ना समझ सकी की तब क्या होगा जब तुम्हारा नशा बढ़ेगा
तुम गलतियाँ करते और तुम्हारे पास इसका कोई कारण न होता, गलतियों को दोहराना और माफी मांगना तुम्हारी आदत बन गई, तुम सोचते हर बार, तुम्हें हर कोई माफ कर दे, मगर कोई क्यों माफ करे तुमको बार बार| क्यों तुम्हारी बेवकूफियों को झेलते हुए तुम्हारे साथ रहे, क्यों तुम्हारे साथ निभाए|
तुम्हारे इस नशे की वजह से ही लोगों ने तुमको छोड़ना शुरू कर दिया, तुमसे दूर होने लगे, कटाने लगे और तुम ! तुम्हारी तो मन माँगी मुराद पूरी हो रही थी तुम्हारे दुःख का नशा पूरा हो रहा था तुम कविताएं लिख रहे थे,,,अच्छी कवितायेँ |
महीने घटते गए, हमारी बहस बढ़ती गई चार से तीन, तीन से दो, दो से एक महीना और अब एक महीने से घट कर १५-२० दिन  में तुम्हें तुम्हारा नशा चाहिए, अब नशे के बिना तुम्हारा सामान्य लिख पाना भी मुमकिन नहीं | बिना प्रताडित किये, बिना हाँथ उठाए तुम पर अब नशा भी तो नहीं चढता है
मगर अब मुझे तुम्हारे साथ साथ श्रीयांश के बारे में भी सोचना है ४ साल का हो रहा है स्कूल भी जाने लगा है| डरती हूँ की जब तुमको नशे की लत इतनी ज्यादा हो जायेगी की उसे मैं पूरा न कर सकूंगी तब क्या होगा | क्या तुम मुझे मार डालोगे ? या खुद को ? 

तुम इस नशे से मुक्त नहीं हो सकते और मैंने फैसला कर लिया है, तुमको इस नशे के साथ रहने के लिए इस बार हमेशा हमेशा के लिए छोड़ कर आई हूँ, मैंने पापा से बात कर ली है, श्रीयांश का एडमीशन यहाँ बगल के स्कूल में करवा दिया है, लौटने के लिए मत कहना, मैं पत्रिकाओं में तुम्हारे लेख, कवितायेँ पढ़ती रहूंगी
                                                                                                                                                              -मानसी
मेरा हाँथ थर थर काँप रहा था, आँखे जैसे अविश्वास से फटी जा रही थी  फिर धीरे धीरे मुंदने लगी, उंगलियां से पन्ने अपने आप फिसल गए और उंगलियां आँखों के कोर के पास पहुँच गईं| उठा और जाकर राइटिंग टेबल की कुर्सी पर बैठ गया और कलम उठा कर लिखने लगा ...

माना की सुबह के तो उजाले नहीं थे हम
ठुकरा दो हमको इतने भी काले नहीं थे हम

तोड़ा गया है मुझको अजब दिल्लगी के साथ
यूं अपने आप टूटने वाले नहीं थे हम

मंजिल के पास जा के हमें लौटना............

*** समाप्त ***
(मई २०१०)

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Comment

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Comment by Dipak Mashal on December 14, 2012 at 12:00am

वीनस डियर, कहानी बढ़िया लगी। सारी टिप्पणियाँ भी पढ़ीं। वैसे तुम्हारी यह पहली कहानी है उस हिसाब से तुम निश्चित रूप से पीठ थपथपाए जाने के काबिल हो, क्योंकि जिस तरह का तुमने लिखा है वह सऊर कईयों को 20-20 कहानियाँ लिखने के बाद भी नहीं आता। तुम एक बार फिर से इस कहानी को ठीक करने के मूड से बैठोगे तो निश्चित रूप से यह और भी निखर कर आयेगी। कई साल पहले एक कहानी पढी थी जिसके नायक को अपने उपन्यास को पूरा करने के लिए दर्द की तलाश थी और इसी के चलते वह अपनी प्रेमिका(पत्नी नहीं) को जानबूझकर इतनी तकलीफ पहुंचाता है कि वह दुनिया तक छोड़ने की कोशिश करती है। उस कहानी में कई उतार-चढ़ाव थे जो दर्द की पटरियों पर से ही गुजरते थे, कहानी लम्बी थी लेकिन उसके अंत तक नायक को आइना नहीं दिखाया गया था।

तुम्हारी कहानी में नायक के किये गए कृत्यों का उसके सामने पटाक्षेप करके, एक नया मक़ाम दिया गया है, हालांकि यह कहीं से नहीं लगता कि पत्र पढ़कर वह सम्हल गया है। यह पात्र की मर्जी है, उसपर किसका जोर चलता है।
शिल्प में अभी भी तुम्हे अपनी ग़ज़लों वाली बात लाने की जरूरत है और कथानक में मोड़ जोड़ने की भी (लेकिन तभी जब कहानी को और बड़ा बनाना हो). आखिर में ग़ज़ल जिसकी भी हो कमाल की है।
कुलमिलाकर पहली कहानी के हिसाब से यह तुम्हे और पाठक दोनों को संतुष्ट करती है। आगे के लिए शुभकामनाएं।
Comment by वीनस केसरी on November 4, 2012 at 2:02am

// कभी कभी ऐसे रहस्य पर कहानी छूट जाए तो भी अच्छी बन पड़ती है ....//
आभार भाई जी


भ्रमर साहेब यह तो इत्तेफाक भर है कि ऐसा हुआ, असलियत यह है कि इसके आगे लिखने को मुझे कुछ सूझा ही नहीं

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on November 4, 2012 at 1:02am
प्रिय वीनस भाई कहानी मन को छू गयी अजीब नशा होता है सचमुच यह लेखन ..रचना भी ...दर्द  और विरह तो इसके खाद और बीज हैं ....और चाहत भी गजब की ....भाव प्रधान ..कभी कभी ऐसे रहस्य पर कहानी छूट जाए तो भी अच्छी बन पड़ती है ....सोचने का अवसर देती हुयी ....त्याग भी दिखा ....महीने के सक्रीय सदस्य चुने जाने पर  आप को बहुत बहुत बधाई 
आप सब को  दशहरा ,दीवाली की शुभ कामनाएं तथा करवा चौथ की भी  जय श्री राधे 
भ्रमर 5 
Comment by shalini kaushik on November 2, 2012 at 12:39am

bahut bhavnatmak prastuti .

Comment by वीनस केसरी on November 2, 2012 at 12:10am

धन्यवाद गणेश भाई आपने कहे से मेरे निर्णय पुख्ता हुआ है
पसंद करने के लिए आभार
कोशिश करूँगा इसमें और कसावट आ सके

Comment by वीनस केसरी on November 2, 2012 at 12:08am
अभी फेसबुक पर सुरेन्द्र चतुर्वेदी साहिब की एक ग़ज़ल पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ
कैसे एक शेर में पूरी कहानी समाई होती है इसका इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि मुझे अपनी यह कहानी उनकी ग़ज़ल के दूसरे शेअर में पढ़ने को मिल गई 
गौर फरमाएं -

बदन से हो के गुज़रा रूह से रिश्ता बना डाला
किसी की प्यास ने आखि़र मुझे दरिया बना डाला।

उसे सोचूँ, उसे ढूँढू, उसे लिक्खुँ मुक़द्दर में
फ़क़त इसके लिए उसने मुझे तन्हा बना डाला।

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 1, 2012 at 9:11am

आश्चर्यचकित हूँ वीनस भाई, ग़ज़लगो के हाथों जिस खूबसूरती से कहानी को सवारा गया है, वो मुझे कई कई बार इस कहानी को पढने हेतु मजबूर किया है, यह कहानी अपने आप में परिपूर्ण है, कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है, कहानी सदैव सुखांत ही नहीं होती, पात्र  पाठकों के अनुसार ही नहीं चला करते, घटना घटित होती है उसके बाद उसपे चर्चा होना आम है, जिस मोड़ पर आप कहानी को समाप्त किये हैं वाही इसकी खूबसूरती है और गुनी पाठकों द्वारा लम्बी लम्बी प्रतिक्रिया दिया जाना कहानी की सफलता है, कहानी की तो श्रेष्टता ही यही है कि वो पाठकों को कई कई आयामों पर सोचने हेतु मजबूर करे , और इस कहानी में वह गुण है, हां मैं मानता हूँ कि कहानी को कुछ कॉम्पैक्ट किया जा सकता था, फिर भी बहुत बढ़िया, आप तो बस बधाई स्वीकार करें महोदय |

Comment by वीनस केसरी on November 1, 2012 at 12:17am

मुझे लगता है अभी मुझे कुछ नहीं करना चाहिए क्योकि एक राय तक न मैं पहुँच पा रहा हूँ न् आप लोग ,,,,,
भविष्य में कोई राय बन पाई तो आप सभी को अवगत करवाऊंगा
सादर

Comment by seema agrawal on October 31, 2012 at 10:35am

वीनस भाई एक बात सोंचने पर विवश हूँ क्या सिर्फ दर्द ही साहित्य , कविता या गीत का असली परिचय है अगर ऐसा होता तो काव्य विधा में  शेष रसों का उल्लेख क्यों किया गया है ...

आपका पात्र सिर्फ एक पहलू का परिचय है सम्पूर्ण साहित्य जगत का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहा है  ...मानती हूँ ऐसे भी लोग हो सकते हैं पर सिर्फ अपवाद स्वरुप ....असामान्यता हमेशा नुकसानदायक होती है अतः उस पात्र के जीवन ने लिए भी नुकसानदायक साबित हुयी 

आप ने स्वयं उसका सही निष्कर्ष प्रस्तुत किया है .......एक बात  और ध्यान देने योग्य है इस प्रकार के निर्णय एक दिन में नहीं उगते ...कई घटनाएँ और वाक़यात उसे लगातार लम्बे समय तक सींचते हैं जैसा कि तर्क सहित आपने भी मानसी के  पत्र की इन पंक्तियों के माध्यम से भी स्पष्ट किया है 

"तुम गलतियाँ करते और तुम्हारे पास इसका कोई कारण न होता, गलतियों को दोहराना और माफी मांगना तुम्हारी आदत बन गई, तुम सोचते हर बार, तुम्हें हर कोई माफ कर दे, मगर कोई क्यों माफ करे तुमको बार बार| क्यों तुम्हारी बेवकूफियों को झेलते हुए तुम्हारे साथ रहे, क्यों तुम्हारे साथ निभाए|
तुम्हारे इस नशे की वजह से ही लोगों ने तुमको छोड़ना शुरू कर दिया, तुमसे दूर होने लगे, कटाने लगे और तुम ! तुम्हारी तो मन माँगी मुराद पूरी हो रही थी तुम्हारे दुःख का नशा पूरा हो रहा था तुम कविताएं लिख रहे थे,,,अच्छी कवितायेँ |"

जब आपने स्वयं रवि कि इस आदत को बेवकूफी ,गलती, नशा करार दिया है तो फिर किस बात की बेचैनी 

ऐसा भी होता है पर, हमेशा ऐसा ही होता है ये सच नहीं है 

कहानी का ताना बाना आपने  बहुत सफलता से बुना है पर जिस प्रकार घर छोड़ने के तर्क का एक पत्र मानसी के द्वारा लिखवाया उसी भाँती न छोड़ने के आग्रह का पत्र यदि तर्क सहित रवि द्वारा भी लिखवाते तो बात संतुलित हो जाती ....आपके मन में ऐसे तर्क अवश्य होंगे 

कहानी पूरी करिए .........

Comment by राज़ नवादवी on October 31, 2012 at 10:19am

आदरणीय, मेरी राय इसपे अलग है. कहानी का अंत चाहे जो भी हो, मगर ज़िंदगी कहानी नहीं होती, गो ज़िंदगी की भी कहानी होती है. आपने बड़ी संजीदगी से निष्कर्ष माँगा था, मैंने कहानी का नहीं, ज़िंदगी का निष्कर्ष दिया है क्यूंकि मुझे लगा ये कहानी जिंदगियों को भी कहीं न कहीं सच में मुतास्सिर कर रही है. कहानी को चाहे आप जो भी रूप दे दें, ये आपके अंदर के कहानीकार का अधिकार क्षेत्र होता है! ज़िंदगी में जीते जागते सांस लेते किरदार होते हैं जिन्हें हर हाल में ज़िंदा रहना होता है. मानसी सिर्फ मानसी नहीं है, वो किसी की पत्नी के अलावा किसी की माँ, बेटी, और बहन भी है. उसी तरह रवि भी सिर्फ रवि नहीं. रिश्तों के एक ही सच के कितने ज़ाविए होते हैं, पारिवारिक जिंदगी सिर्फ इज्द्वाजी मुहब्बत पे नहीं, पूरे कुनबाई तानेबाने के इर्द-गिर्द रची बसी होती है और हमारी खुशियों का तुख्म (बीज) सबकी खुशियों से सिंचित होता है. 

सादर!

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