===========ग़ज़ल===========
बहरे- हजज
वजन- १ २ २ २- १ २ २ २- १ २ २ २- १ २ २ २
सुबह भी स्याह जिसकी वो सुहानी शाम क्या देखे
वो मारा फुर्कतों का रात का अंजाम क्या देखे
लगा कर हौसलों के पर परिंदा इश्क का उड़ता
जमीं से उड़ चला तो फिर फलक क्या बाम क्या देखे
हया आशिक बनाती है अदा मदहोश करती है
निगाहों से पिलाती यूँ शराबी जाम क्या देखे
बना कर खूँ को स्याही नाम लिक्खा था कभी उसका
नहीं मिटता दरो-दीवार से वो नाम क्या देखे
मिटा दस्तूर तोड़ी रस्म सब भूला रिवाजों को
हुआ आशिक भला अब नाम क्या बदनाम क्या देखे
नहीं कोई बड़ा उसको नहीं छोटा कोई उसको
फकीरी भा रही जिसको वो खासो-आम क्या देखे
इबादत में जो डूबा "दीप" तो खुद को भुला बैठा
खुदा इंसान में पाया है अल्ला-राम क्या देखे
संदीप पटेल "दीप"
सिहोरा, जबलपुर (म. प्र. )
Comment
नहीं कोई बड़ा उसको नहीं छोटा कोई उसको
फकीरी भा रही जिसको वो खासो-आम क्या देखे anmol hai ,,,,
फकीरी भा रही जिसको वो खासो-आम क्या देखे
बहुत खूब संदीप जी ।
हिला दिया आपने संदीप जी। तकनीकी पक्ष गजल की मैं नहीं जानता लेकिन भावों ने तो सराबोर कर दिया
हया आशिक बनाती है अदा मदहोश करती है
निगाहों से पिलाती यूँ शराबी जाम क्या देखे -----इस शेर ने तो सभी शेरों नंबर ले लिए वाह वाह
फलक क्या बाम क्या देखे----इसमें दो बार क्या का प्रयोग खल रहा है अर्थ भी गड़बड़ा रहा है जरा इस पंक्ति को दुबारा देख लें
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