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इंतहा

किसी वैश्या को देख
मुझे नफरत नहीं होती
देख उसकी बेबसी
मेरी आँख है रोती
लुटे अरमान उसके
दिल से में महसूस करता हूँ
दर्द की ऐ-दोस्तों
कोई इंतहा नहीं होती
कभी देखा है मछली को
तड़पते  बाहर पानी से
क्या उसको जीने की
कोई आस नहीं होती ?
कभी महसूस करना
दिल के छालों को गुनाहगारो
बेबस नज़रें यूँ ही तो
उदास नहीं होती
दीपक ‘कुल्लुवी’
१४/८/१२.

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Comment by Rekha Joshi on August 14, 2012 at 11:27pm

कभी महसूस करना

दिल के छालों को गुनाहगारो
बेबस नज़रें यूँ ही तो
उदास नहीं होती,बहुत खूब दीपक जी ,बहुत बढ़िया रचना ,बधाई 
Comment by Er. Ambarish Srivastava on August 14, 2012 at 10:36pm

दीपक जी ! इस कविता के माध्यम से बहुत सार्थक बात कही दी है आपने ! बधाई मित्र !

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