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कितना कठिन हो जाता है
लिखना
कई बार
'फैशन' के अनुरूप
कैसे साध रखा है हमने
अपने मन को
की वह सोचता है
बिलकुल किसी कंप्यूटर प्रोग्राम की तरह
किस तरह रख पाते हैं हम
अपने मन के भावों को
अनुशासन में
और
वे प्रकट होते हैं
केवल
एक दिवस-विशेष पर...
एक विशेष दिन ही जागता है जज़्बा देश-प्रेम का
या
मातृ-पितृ भक्ति का..
किसी एक दिन ही
आती है
भूली-बिसरी
बहन की याद..
ऐसे ही कई लोग हैं
जिनका ऋणी है
यह तुच्छ सा जीवन
लेकिन विडम्बना है
अभी याद भी नहीं आ पा रहे हैं
वे तमाम लोग
किन्तु
एक दिवस-विशेष पर
बज उठेगा
मन-मस्तिष्क में अलार्म
तब लिखूंगा शायद
उनके बारे में भी
जब देगा अनुमति
मेरा अनुशाषित मन
और पूरे वर्ष
जिसको याद नहीं कर पता हूँ
वह
मैं स्वयं हूँ
क्यूंकि
मेरा तो कोई " डे " नहीं है...

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Comment

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Comment by AjAy Kumar Bohat on May 15, 2012 at 2:29pm

Bahut Bahut Shukriya Dr.Prachi Singh ji, Mahima ji evam Shri Kushwaha sahab...

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 14, 2012 at 4:39pm

और पूरे वर्ष
जिसको याद नहीं कर पता हूँ
वह
मैं स्वयं हूँ
क्यूंकि
मेरा तो कोई " डे " नहीं है...

आदरणीय अजय जी, सादर 
इसी बहाने याद कर  लेते हैं 
बधाई.

Comment by MAHIMA SHREE on May 14, 2012 at 4:11pm
एक दिवस-विशेष पर
बज उठेगा
मन-मस्तिष्क में अलार्म
तब लिखूंगा शायद
उनके बारे में भी
जब देगा अनुमति
मेरा अनुशाषित मन....बहुत बढ़िया .. बधाई आपको

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 14, 2012 at 12:14pm

बहुत खूब कटाक्ष किया है इन विशिष्ट दिवसों पर... 

हार्दिक बधाई 
 
 किन्तु
एक दिवस-विशेष पर
बज उठेगा
मन-मस्तिष्क में अलार्म
तब लिखूंगा शायद
उनके बारे में भी
जब देगा अनुमति
मेरा अनुशाषित मन......... waah
Comment by AjAy Kumar Bohat on May 14, 2012 at 11:24am

परम  आदरणीय भवेश जी और अरुण जी, आपका  बहुत बहुत शुक्रिया, आप जैसे ज्ञानी-जन जब हौसला अफजाही करते हैं, तो मन के ऊपर एक बहुत ही बड़ी जिम्मेदारी का सा अहसास होता है की कभी कहीं कोई हलकी बात न लिख जाऊं , ईश्वर से प्रार्थना   है की कविताओ का मयार  बना  रहे  ...

सादर~
Comment by Abhinav Arun on May 14, 2012 at 11:07am

कितना कठिन हो जाता है
लिखना
कई बार
'फैशन' के अनुरूप
कैसे साध रखा है हमने
अपने मन को
की वह सोचता है
बिलकुल किसी कंप्यूटर प्रोग्राम की तरह
एक कवि की मन वाणी को प्रतिबिंबित किया है आपने ,  वह भी बहुत सफलता के साथ , विषय के सन्दर्भ में ताजगी स्फूर्तिदायक है बधाई अजय जी !!

Comment by Bhawesh Rajpal on May 14, 2012 at 11:03am

कैसा समय आ गया है ,  अब हम  माँ - पिता ,  रिश्तों , को  वर्ष का एक-एक दिन  देने लगे हैं , वही  माता-पिता  जिन्होंने हमें जीवन दिया  !  हम एक दिन दे कर अहसान कर रहे हैं ?

ये कैसा विकास है ?     क्या हमारी संवेदनाएं  कंप्यूटर -इन्टरनेट - टी वी ,  और आमदनी  तक सिमट कर नहीं रह गयी हैं ?  और इसी आपा -धापी  में  हम भूल जाते हैं  की  माँ हमारा  कुछ समय

पाने के लिए रो रही है ! पिता हमें गले लगाने को बेचैन है  !     क्यों न  हम  अन्य सभी की सीमाएं  बाँध दें , और  असीमित कर दें  उन खुशियों को जो माता-पिता के साहचर्य  में मिलती हैं  !

अजय कुमार बोहट  जी ,   खुबसूरत  रचना के लिए  बहुत-बहुत  बधाई  ! - भवेश  राजपाल  !

Comment by AjAy Kumar Bohat on May 14, 2012 at 10:57am

Shukriya Dubey ji...

Comment by AjAy Kumar Bohat on May 14, 2012 at 10:44am

Aadarniye Rajesh ji, aapne sahi kaha ham sab tukdon mein bati hui zindagi hi to ji rahe hain...

Comment by Ajay Kumar Dubey on May 14, 2012 at 10:44am

सुन्दर भाव-पूर्ण रचना . बधाई.

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