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 मैंने अपने अंदर बना डाले हैं

अजीब से दायरे 

अनेक बंधन 

अनेक विचार 

मैंने पाल रखे हैं

अजीब सी मान्यताएं 

अनेक नियम 

अनेक प्रथाएं

इनसे निकल नहीं  पाती

घुमती रहती हूँ उसी में

बाहर जा नहीं पाती

मैंने कही भी नहीं

खुले  रखे हैं दरवाजे

डाल रखे हैं दरवाजो पे

बड़े बड़े ताले

खो बैठी हूँ उनकी चाभियाँ

नहीं ढूंढने जाती हूँ उन्हें

सोच रखे हैं कई बहाने

बाहरी हवाएं नहीं आती

मौसम भी नहीं बदलते

सूरज की किरणें  भी

लौट जाती है टकराकर

दो पल खुश हो जाती हूँ

अपने इंतजामात पर

पर अगले पल ही छा जाता है

घनघोर अँधेरा

मुश्किल होता है

ये जानना

दिन है या रात हो गयी है

सच है या

है कोई मायाजाल 

Views: 761

Comment

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Comment by MAHIMA SHREE on April 30, 2012 at 5:50pm
प्रिय मृदु जी , नमस्कार ,
आपका ह्रदय से धन्यवाद
Comment by CA (Dr.)SHAILENDRA SINGH 'MRIDU' on April 30, 2012 at 5:12pm

खूबसूरत कृतित्व पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें महिमा जी

Comment by MAHIMA SHREE on April 30, 2012 at 1:37pm
आदरणीय बागी जी , नमस्कार ,
आपने समय दिया , सराहा, आपका ह्रदय से धन्यवाद /
Comment by MAHIMA SHREE on April 30, 2012 at 1:36pm
आदरणीय जवाहर सर ,
नमस्कार , आपका ह्रदय से धन्यवाद / हायकू फिर कभी .....

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 29, 2012 at 10:03pm

खुबसूरत रचना महिमा श्री जी, खुद को टटोलने की जदोजहद इस रचना में स्पष्ट दिखाई दे रही है , बधाई स्वीकार करें |

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on April 29, 2012 at 9:34pm

मुश्किल होता है

ये जानना

दिन है या  रात हो गयी है

सच है या

 है कोई मायाजाल

 है तो माया जाल ही जिसे हम सच मान बैठे हैं इसीलिये इसे तोड़कर बाहर निकल नहीं पाते!
सुन्दर भाव!..... पर हायकू  कहाँ है?

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