For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

कब से देखा है,

याद भी नही तब से देखा है,
इस मौसम को आते हुए
 
एक पहचान सी है
एक मरासिम भी कायम है
फिर भी नायाब सा
किसी हसीन अजनबी की तरह
जेरे लब एक मुस्कुराहट छोड जाता  है
जब भी आता है 
 
मौसमों की भीड़ से गुज़र कर 
अचानक किसी सुबह
हरशिंगार की खुशबू से 
यूँ मन को भिगोता है  
कि फिर किसी मौसम का 
रंग नही चढ़ता है.
 
एक बरस बाद 
आज फिर मद्धम है धूप
कहीं दूर आसमान में मानो 
पिघल रहा हो सूरज 
गए बरस की तुम्हारी उन रंज़िशों की तरह.

 

Views: 485

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by धर्मेन्द्र शर्मा on October 16, 2011 at 4:03pm

बहुत सुन्दर..


गुज़री है एक उम्र मौसम का मिजाज़ समझने में
जिन्दगी के दुःख-सुख धूप छाँव हैं समझे ही नहीं

Comment by Aradhana on October 12, 2011 at 12:57pm

अरुण जी,

कई सालों से महसूस किया तब कहीं लफ्ज़ हाथ आए...इस बरस अनुभूति के साथ.

 

दिल से शुक्रिया,

 

सादर,

आराधना

Comment by Aradhana on October 12, 2011 at 12:54pm

आभार  सौरभ जी.
जी, प्रकृति मौन रह कर भी बहुत कुछ कहती है. कभी उसके संकेत समझ आजाते हैं कभी भरमा जाते हैं.
आपको कविता पसंद आई हम शुक्रगुज़ार हैं.
सादर,
आराधना

Comment by Abhinav Arun on October 12, 2011 at 10:30am

गहरे भावों की मधुर प्रस्तुति -

एक बरस बाद 
आज फिर मद्धम है धूप
कहीं दूर आसमान में मानो 
पिघल रहा हो सूरज 
गए बरस की तुम्हारी उन रंज़िशों की तरह.
प्रकृति के साथ रचनाकार का सुखद सुन्दर समन्वय !! हार्दिक बधाई !!!!

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 12, 2011 at 10:20am

हर अग्रसरित होता लम्हा किसी न किसी अनुभूति को जीता है. कुछ अनुभूतियाँ काल-तप्त पत्थर पर खिंची गहरी लकीर की तरह सदियों अपना वज़ूद बनाये रखती हैं. और कुछ तो उस पत्थर के खुद ही मूर्ति होजाने का कारण बन जाती हैं.  ऐसा ही क्षण किसी को  ’..काली कमरिया चढ़े न दूजो रंग’ या फिर  ’..तुम संग तोड़ .. कौन संग जोड़ूँगी..’  का उद्घोष करने को उत्प्रेरित करता है --

यूँ मन को भिगोता है  
कि फिर किसी मौसम का 
रंग नही चढ़ता है.

 

इस अपनत्व में दुलार है तो बिगाड़ भी है. किन्तु जो है उसपार है. इसपार तो बस संकेत भर है, संकेत है इकाई की--

पिघल रहा हो सूरज 
गए बरस की तुम्हारी उन रंज़िशों की तरह.

वाह !!

एक कालजयी क्षण को हामी भरती प्रस्तुत रचना बहुत गहरे आंदोलित करती है. 

रचना के लिये बधाइयाँ.

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आदरणीय अमित जी, आपकी इस इज़्ज़त अफ़ज़ाई के लिए आपका शुक्रगुज़ार रहूँगा। "
32 minutes ago
Euphonic Amit replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आदरणीय ज़ैफ़ भाई आदाब, बहुत अच्छी ग़ज़ल कही आपने बधाई स्वीकार करें।"
59 minutes ago
Euphonic Amit replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"जी ठीक है *इल्तिजा मस'अले को सुलझाना प्यार से ---जो चाहे हो रास्ता निकलने में देर कितनी लगती…"
1 hour ago
DINESH KUMAR VISHWAKARMA replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आदरणीय अमीर जी सादर प्रणाम । ग़ज़ल तक आने व हौसला बढ़ाने हेतु शुक्रियः । "गिर के फिर सँभलने…"
1 hour ago
Euphonic Amit replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"ठीक है खुल के जीने का दिल में हौसला अगर हो तो  मौत   को   दहलने में …"
1 hour ago
Euphonic Amit replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"बहुत अच्छी इस्लाह की है आपने आदरणीय। //लब-कुशाई का लब्बो-लुबाब यह है कि कम से कम ओ बी ओ पर कोई भी…"
1 hour ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"ग़ज़ल — 212 1222 212 1222....वक्त के फिसलने में देर कितनी लगती हैबर्फ के पिघलने में देर कितनी…"
3 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
शिज्जु "शकूर" replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"शुक्रिया आदरणीय, माजरत चाहूँगा मैं इस चर्चा नहीं बल्कि आपकी पिछली सारी चर्चाओं  के हवाले से कह…"
4 hours ago
Euphonic Amit replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आदरणीय शिज्जु "शकूर" जी आदाब, हौसला अफ़ज़ाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिय:। तरही मुशाइरा…"
5 hours ago
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"  आ. भाई  , Mahendra Kumar ji, यूँ तो  आपकी सराहनीय प्रस्तुति पर आ.अमित जी …"
7 hours ago
Mahendra Kumar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"1. //आपके मिसरे में "तुम" शब्द की ग़ैर ज़रूरी पुनरावृत्ति है जबकि सुझाये मिसरे में…"
8 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"जनाब महेन्द्र कुमार जी,  //'मोम-से अगर होते' और 'मोम गर जो होते तुम' दोनों…"
9 hours ago

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service