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मुस्कानों में अश्क छुपाती रहती हूँ॥

सब को मीठे बोल सुनाती रहती हूँ
दुश्मन को भी दोस्त बनाती रहती हूँ॥

कांटे जिस ने मेरी राह में बोये हैं
राह में उस की फूल बिछाती रहती हूँ॥ 

अपने नग़मे गाती हूँ तनहाई में 
वीराने में फूल खिलाती रहती हूँ॥ 

प्यार में खो कर ही सब कुछ मिल पाता है 
अक्सर मन को यह समझाती रहती हूँ 

तेरे ग़म के राज़ को राज़ ही रक्खा है
मुस्कानों में अश्क छुपाती रहती हूँ॥ 

दिल मंदिर में दिन ढलते ही रोज़ "सिया"
आशाओं के दीप जलाती रहती हूँ॥

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Comment

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Comment by Er. Ambarish Srivastava on October 2, 2011 at 7:05pm

इस खूबसूरत ग़ज़ल हेतु बहुत-बहुत बधाई स्वीकार कीजिये! कृपया भाई बागी जी की इस्लाह पर ध्यान दें !


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 2, 2011 at 6:16pm

सब को मीठे /बोल सुना/ती रहती हूँ

२२२२          २११२       २२२२
दुश्मन को भी/ दोस्त बना/ती रहती हूँ॥

२२२२           २११२        २२२२

 

सिया जी बाबहर मतला, खुबसूरत ख्यालात, काफिया नाती तय, रदीफ़ रहती हूँ |

 

शेष शेरों में काफिया नहीं समझ सका, मीटर भी कई जगह भटकता हुआ लगा, यदि गलत मैं हूँ तो कृपया मार्गदर्शन कीजियेगा |

 

कहन का जबाब नहीं, बहुत बहुत बधाई आपको |

 

 

कृपया ध्यान दे...

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