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कविता :- हम नादान ?

कविता :- हम नादान ?

 

कदम आगे कदम पीछे

कभी उभरे कभी बिछे

हमीं इंसान

हम नादान ?

कभी मुखरित कभी कुंठित

हैं अंतर्द्वंद्व में गुम्फित

हमीं नादान

हम इंसान ?

कहाँ है अश्व  सी तेजी

नहीं गर्दभ सा धीरज भी

है बस खच्चर हमारा ज्ञान

हमीं इंसान

हम नादान ?

 

         -  अभिनव अरुण (270811)

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Comment by Abhinav Arun on September 5, 2011 at 12:39pm
bahut bahut dhanyavaad Bagi Ji !

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 5, 2011 at 11:28am

खुबसूरत रचना , अभिव्यक्ति के सोपान पर रुचिकर कविता , बधाई अभिनव जी |

Comment by Abhinav Arun on September 2, 2011 at 1:24pm

आपको कविता पसंद आई आभारी हूँ आदरणीया मोनिका जी एवं वंदना जी !!

Comment by monika on September 1, 2011 at 5:39pm

अरुंण जी बहुत अच्छी कविता. बहुत से सवाल और ढेर सारे विचारो को जन्म देती हे ये कविता शायद हम सभी इन सवालो के समाधान खोज पाएँगे एसी उम्मीद के साथ आपको अच्छी कविता के लिए धन्यवाद देती हू.

Comment by Abhinav Arun on September 1, 2011 at 9:12am
bahut abhaar Ashish ji.apki tippani mere liye prerna hai.
Comment by आशीष यादव on August 31, 2011 at 11:03pm

अरुण सर,
मैंने पहले भी कहा किया है की आप को पढना सुखद अनुभव होता है|
आज भी आप की ये कविता बेहद अच्छी लगी|
आपकी लेखनी को नमन|

Comment by Abhinav Arun on August 27, 2011 at 4:42pm
Sri Saurabh Ji apne kavi aur kavita ke marm ko mahsoos kiya aur bebaak tippani ki ABHAARI hoon.rachnakar aur samikshak dono ka apna dharm hai par saty shashwat hai.aur uski vijay avashyambhavi !

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 27, 2011 at 11:37am

अरुण अभिनवजी, सर्वप्रथम, वैचारिक किंकर्त्तव्यविमूढ़ता को सामने लाती इस रचना पर मेरी बधाइयाँ लें.

संतोष हुआ, कि आपने प्रस्तुत रचना के संदर्भ में अपनी मनोदशा और स्थिति को भी स्पष्ट कर दिया है. और हम जैसे तमाम पाठकों को यह स्पष्ट हो जाता है कि आपकी रचना एक प्रस्तुतकर्त्ता के भ्रमित मनस और कचोटते अंतर के उद्वेलन का प्रस्तुतिकरण मात्र है, कोई आरोपित निर्णय नहीं.  न ही, किसी टुच्चे अहंकार को तुष्ट करने का थोथा प्रयास.     ...साधु-साधु.

 

//कभी मुखरित कभी कुंठित

हैं अंतर्द्वंद्व में गुम्फित

हमीं नादान

हम इंसान ?//

इन पंक्तियों में निहित निरीहता को शिद्दत से महसूस किया है हमने.  उद्विग्न भावनाओं को शब्द देने के इस सफल प्रयास पर मेरी हार्दिक बधाई.

 

आजके सामाजिक, राजनैतिक तथा मानवीय परिदृश्य में कुछ भी एकदम से कहना प्रासंगिक नहीं है, विशेषकर तब, जब लिये गये निर्णय और मानवीय भावनाओं के बीच सामंजस्य नहीं बन पा रहा हो,  या न बनने दिया जा रहा हो.

पारस्परिक संबन्धों के अपने मायने होते हैं. लेकिन आज सम्बन्ध तक शातिर गणना की बलि चढ़े दीख रहे हैं, तो, किसी  जन, समुदाय या ’वाद’ की ओर संशयात्मक उंगली दिखाना मानसिक प्रौढ़ता का परिचायक कत्तई नहीं होगा.

 

अरुण अभिनवजी, जिस कैनवास पर आपने लेखकीय कूँची उठायी और चलायी है, उसके लिहाज से प्रयुक्त हुए शाब्दिक रंग पृथक-पृथक होते हुये भी वस्तुतः अपनी अलहदी इकाई बनाये नहीं रख पा रहे हैं, यही कारण है कि आपकी ज़मीन पर मैंने इतना कुछ कह डाला है.   मेरी समझ से यह किसी रचना की सफलता है. ..   धन्यवाद.

 

Comment by Abhinav Arun on August 27, 2011 at 9:55am

मैं स्वीकार करता हूँ ...इस मुद्दे पर मेरा विचार भी बौद्धिक विभ्रम का शिकार है | मन कुछ कहता है मानस कुछ ... उसी की एक छोटी सी अभिव्यक्ति | इसे एक साहस भी कह सकते हैं ... आज खुलकर सामने कौन आ रहा आप खुद ही देखिये सबका चश्मा फोटो क्रोमेटिक हो गया लगता है  :- >>

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