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बचपन में

एक दिन 

एक संटी को

मुँह में दबाकर

मैं गन्ना

समझ बैठी

आज लिखते हुये

फिर भूल से 

किसी के पन्ने को

मैं अपना पन्ना

समझ बैठी

न जाने कितनी

होती रहती हैं

मिस्टेक जिंदगी में

कुछ अनजाने में

कुछ नादानी में

फिर आती है

झेंप इतनी

तो उन्हें मैं कैसे,

किस तरह और  

किस किससे कहती l

 

-शन्नो अग्रवाल

 

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Comment

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Comment by Shanno Aggarwal on August 6, 2011 at 1:46am

वीरेंद्र एवं सतीश जी, रचना सराहने के लिये आपका हार्दिक धन्यबाद. 

Comment by satish mapatpuri on August 6, 2011 at 12:36am

आज लिखते हुये

फिर भूल से

किसी के पन्ने को

मैं अपना पन्ना

समझ बैठी

बहुत खूब

Comment by Veerendra Jain on August 6, 2011 at 12:18am

bahut hi khubsoorat kavita.... bahut bahut badhai aapko...

Comment by Shanno Aggarwal on August 5, 2011 at 11:32pm

आशीष, आपका बहुत धन्यबाद. 

Comment by आशीष यादव on August 5, 2011 at 9:58pm

jindgi hai, galtiyan hona swabhawik hai aur unki sahaj swikriti bahut badi baat hai.

badhai.

Comment by Shanno Aggarwal on August 5, 2011 at 9:52pm

आदरणीय सौरभ जी एवं गणेश जी, मेरी छोटी सी रचना को आप लोगों ने सराहा जिसके लिये आप दोनों का बहुत धन्यबाद.   


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 5, 2011 at 6:17pm

//

आज लिखते हुये

फिर भूल से 

किसी के पन्ने को

मैं अपना पन्ना//

आद. शन्नोजी, बहुत बधाई हो इस रचना के लिये. आपकी स्वीकारोक्ति कितनी सहज है..!!  इस सहजता को रचनाओं की अंतर्धारा बनायी जाये तो इनली संप्रेषणीयता कितनी बढ़ जायेगी.. !!

आपसे और-और की उम्मीद बनी रहेगी. ..

धन्यवाद



मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 5, 2011 at 10:46am

होती रहती हैं

मिस्टेक जिंदगी में

कुछ अनजाने में

कुछ नादानी में

 

बिलकुल सही कह रही है शन्नो दीदी, इंसान तो गलतियों का पुतला है, जितना मिनीमाइज कर सके वही प्रयास हम सब करते है < खुबसूरत कविता हेतु आपका आभार | 


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