दोहा पंचक ..... असली -नकली
हंस भेस में आजकल, कौआ बाँटे ज्ञान ।
पीतल सोना एक से, कैसे हो पहचान ।।
अपनेपन की आड़ में, लोग निकालें बैर ।
कौन किसी के वास्ते, आज माँगता खैर ।।
अच्छी लगती झूठ की, वर्तमान में छाँव ।
चैन मगर मिलता वहाँ, जहाँ सत्य की ठाँव ।।
धोखा देती है बहुत, अधरों की मुस्कान ।
मन में क्या है भेद कब, होती यह पहचान ।।
रिश्तों में बुझता नहीं, अब नफरत का दीप ।
दुर्गंधित जल में नहीं, मिलते मुक्ता सीप ।।
सुशील सरना / 23-8-24
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय जी
आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर दोहे हुए हैं। हार्दिक बधाई।
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