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ग़ज़ल

221 2121 1221 212

मदमस्त हम न हों कभी आँखों नमी से हम
सुख दुख रहें खुशी से सदा बन्दगी से हम

हर शख़्स चाहता है ख़ुशी से हो ज़िन्दगी
तस्बीह हो ख़ुदा की बचें हर बदी से हम

हमदर्द बन रहें कभी ज़िन्दा न लाश हों
खुशहाल ज़िन्दगी जियें इन्सान ही से हम

हमको क़सम ख़ुदा की न ज़ालिम का साथ हो
खुशहाल हर कोई कि हर दम नबी से हम

हम भूल कर भी साथ न हों साज़िशों कहीं
जल्लाद हर कहीं हैं निरे पीर ही से हम

चेतन हमें सुकूँन भी हासिल कहीं तो हो
मंज़िल हमारे क़दमो हों मालिक, ख़ुशी से हम

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन
मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Chetan Prakash on July 1, 2023 at 10:10pm

आदरणीय, नीलेश 'नूूर',धन्यवाद !
ग़ज़ल की भाषा के सम्बंंध, मुझे यह कहना है कि सन्दर्भ गत गज़़ल के अंश
दूसरी कापी में आपके परामर्श से पहले ही बदल चुका था । लेकिन समय से सम्पादन ( एडिटिंग ) नहीं कर पाया ।
"कभी ज़िन्दा न लाश हों" के बजाय
उक्त मिसरे में "सदा मासूम साथ हों "
मंजिल हमारे क़दमों में जीयें खुशी से हम, यहाँ मालिक शब्द को बदला गया है !
"हर कोई कि हर दम नबी से हम " को बदलकर
खुशहाली सब जगह हो निरे पीर ही से हम
किया गया था! सादर ...

Comment by Nilesh Shevgaonkar on July 1, 2023 at 12:24pm

आदरणीय चेतन जी,

ग़ज़ल का ठीक प्रयास हुआ है. 
मुझे लगता है कि ग़ज़ल की जगह आपको ज़बान का अध्ययन करने कि अधिक आवश्यकता है ..
अन्यथा न लें किन्तु 
.
 कभी ज़िन्दा न लाश हों
खुशहाल हर कोई कि हर दम नबी से हम
हम भूल कर भी साथ न हों साज़िशों कहीं
मंज़िल हमारे क़दमो हों मालिक, ख़ुशी से हम
जैसे तमाम मिसरे या तो कोई अर्थ नहीं देते हैं या अर्थ का अनर्थ करते प्रतीत होते हैं.
प्रयास के लिए बधाई 
सादर 

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