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है ज़हर आज हवाओं में, दिल दहलते हैं

1212 1122 1212 22

है ज़हर आज हवाओं में, दिल दहलते हैं
मुनाफ़िकों की है बस्ती कि वो टहलते हैं

के चार सू यहाँ मरते हैं लोग तनहाई
बुझे- बुझे से हैं बूढ़े कहीं निकलते हैं

कि ख़ौफनाक है मंज़र ये नफ़रतों दुनिया
ये ज़ालिमों की है बस्ती खला बहलते हैं

वो शर्म मर गयी आँखों की ग़मज़दा हम हैं
करें भी क्या अदब वाले यहाँ से चलते हैं

गुलाम देते सलामी वो शाह भी खुश हैं
कि मार डाले हैं दुश्मन जहाँ जो खलते हैं

न आने देंगे बहारें यहाँ वो जब तक हैं
वो आजमाते हैं चेतन निहाल पलते हैं

मौलिक व अप्रकाशित

प्रोफ. चेतन प्रकाश 'चेतन'

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