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कान्हा कहाँ गये -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२२१/२१२१/२२१/२१२
*
फिरती स्वयम्  से  पूछती  राधा  कहाँ गये
भक्तों के दुख को भूल के कान्हा कहाँ गये/
*
होने लगा जगत से है नित नाश धर्म का
आने का फिर से भूल के वादा कहाँ गये/
*
गोकुल हो मथुरा द्वारका कन्सों का राज है
जन-जन से ऐसे  तोड़  के  नाता कहाँ गये/
*
रिश्ते जहाँ में छल के ही आवास अब बने
होता सभा  में  मान  का  सौदा  कहाँ गये/
*
आओ मिटाने पीर को जन-जन पुकारता
मुरली छिपाये  लोक  के  राजा कहाँ गये/
*
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

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Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on August 23, 2022 at 4:31pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब, सुंदर रचना हुई है हार्दिक बधाई स्वीकार करें।

'गोकुल हो मथुरा द्वारका कन्सों का राज है'... इस पंक्ति की मात्रा गणना एक बार फिर चेक कर लें। 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 22, 2022 at 9:12pm

आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन/ गजल पर उपस्थिति और सराहना के लिए आभार/

Comment by Sushil Sarna on August 22, 2022 at 12:28pm
वाह आदरणीय लक्ष्मण धामी जी बहुत सुंदर प्रस्तुति सर । हार्दिक बधाई सर

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