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मैं घबरा जाता हूँ यह सोच सोच कर ,
कैसे कोई गरीब अपना घर चलाता होगा,

सौ लाता है मजदूर पूरे दिन मर कर,
कैसे भर पेट दाल रोटी खा पाता होगा,

बीमार मर जायेगा दवा का दाम सुनकर,
हे! ईश्वर कैसे वो ईलाज कराता होगा,

मुर्दा डर जायेगा लकड़ी की दर सुनकर,
कैसे कोई मजलूम शव जलाता होगा ,

लगी है आग गंगा में महंगाई की "बागी",
कैसे कोई अधनंगा डुबकी लगाता होगा ,

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Comment

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Comment by आशीष यादव on July 18, 2010 at 2:15pm
बहुत अच्छी कविता बनी है ये महंगाई पर, गरीबों के जीवन पे लिख कर आपने बहुत नेक काम किया. और फिर से लोगो का ध्यान आकर्षित किया गरीबी की तरफ.
यहाँ बहुत से लोग तो ऐसे है की गरीब के पुरे दिन की कमाई का कई गुना तो अपने शराब और सिगरेट में एक ही दिन में फूंक देते है. यहाँ गरीबी के सम्बन्ध में एक पंक्ति याद आ रही है की,
"श्वानो को मिलता दूध भात, भूखे बच्चे अकुलाते है."
"माँ की छाती से चिपक ठिठुर, जाड़े की रात बिताते है."

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 18, 2010 at 2:10pm
आदरणीया बहन आशा जी , बड़े भाई बब्बन जी, परम मित्र राणा जी और प्रीतम जी, आप लोगो का मैं ह्रदय से आभारी हूँ जो आपने अपना आशीर्वाद और प्यार इस कविता को दिया, आप सब का प्रीत ही है जो मेरे लिये बिटामिन बी-काम्प्लेक्स का काम करती है और आगे लिखने की प्रेरणा प्रदान करती है,
Comment by asha pandey ojha on July 18, 2010 at 2:00pm
@ Ganesh bhaiya aapkee yah kavita padhkar meree aankhon me aansu aa gaye ...?? ye gareeb zindgee ka ythrthwadee chitran kiya hai aapne .. rom rom tadp utha hai is peeda ko padhkar aesa lag rha hai jaise ki main in lamho ko ji rahee hun .. is kavita ko post karne ke liye aap ka dil se aabhar

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on July 18, 2010 at 1:28pm
भूख, बीमारी, लाशें, अधनंगापन, सारी चीजे महंगाई से प्रभावित है....बड़ा मार्मिक चित्रण किया है महंगाई के इर्द गिर्द पिसते एक आम इन्सान के जीवन का...बागी भैया साधुवाद!!!!
Comment by PREETAM TIWARY(PREET) on July 17, 2010 at 11:51pm
सौ लाता है मजदूर पूरे दिन मर कर,
कैसे भर पेट दाल रोटी खा पाता होगा,

वाह गणेश भैया वाह....एकदम हृदय स्पर्शी कविता लिखा है आपने.......बात सही भी है जहाँ हुमलोग एसी मे बैठ कर हवा खाते वही ये मजदूर भाई अपना खून जला कर हमारे लिए काम करते हैं.....हमलोग पान,बीड़ी,सिगरेट पर दिनभर मे 100 उड़ा देते होंगे लेकिन वो दिनभर के मेहनत से 100 लाते हैं तब किसी तरह दाल रोटी का काम चलता है.....
एकदम हृदय स्पर्शी कविता है भाई....बहुत सही.....
Comment by baban pandey on July 17, 2010 at 9:56pm
गणेश भाई , लगता है आप स्वाम उस मजदूर के रूप में अपने को देख कर लिखे है badhai

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