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ग़ज़ल (वो नज़र जो क़यामत की उठने लगी)

फ़ाइलुन -फ़ाइलुन - फ़ाइलुन -फ़ाइलुन
2 1 2 - 2 1 2 - 2 1 2 - 2 1 2


वो नज़र जो क़यामत की उठने लगी 

रोज़ मुझपे क़हर बनके गिरने लगी

रोज़ उठने लगी लगी देखो काली घटा
तर-बतर ये ज़मीं रोज़ रहने लगी

जबसे तकिया उन्होंने किया हाथ पर
हमको ख़ुद से महब्बत सी रहने लगी

एक ख़ुशबू जिगर में गई है उतर
साँस लेता हूँ जब भी महकने लगी

उनकी यादों का जब से चला दौर ये
पिछली हर ज़ह्न से याद मिटने लगी

वो नज़र से पिला देते हैं अब मुझे
मय-कशी की वो लत साक़ी छुटने लगी

अब फ़ज़ाओं में चर्चा  यही आम है
सुब्ह से ही ये क्यूँ शाम सजने लगी

दिल पे आने लगीं दिलनशीं आहटें

अब ख़ुशी ग़म के दर पे ठिटकने लगी

लौट आए वो दिन फिर से देखो 'अमीर' 

उम्र अपनी लड़कपन सी दिखने लगी

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 28, 2020 at 9:56pm

आदरणीय चेतन प्रकाश जी आदाब आपकी ज़र्रा-नवाज़ी का बहुत बहुत शुक्रगुजा़र हूँ, जनाब मैं प्रयास करूँगा आपकी सलाह पर अमल करने का। संबल देने के लिए आपका हार्दिक आभार। सादर।

Comment by Chetan Prakash on September 28, 2020 at 9:29pm

मोहतरम अमीर साहब, आप अच्छे से ग़ज़ल कहते हैं। खुद पर विश्वास रखिए, बस। हाँ बहुत जल्दी, आप असहज हों जाते है। आपको समझना चाहिए हम सब उम्र दराज़ है,पर मुशायरे में प्रतिभागी भी हैं। कोई अपने आपको क़मतर नहीं मानता। सो, आपके साथ हूँ, थोड़ा धैर्य आपको ज़रुर सुकून देगा, मोहतरम !

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 28, 2020 at 8:21pm

आदरणीय जनाब नीलेश 'नूर' साहिब मेरी कल की टिप्पणी में आपको कहीं भी सम्बोधित नहीं किया गया था, आपकी अन्तिम टिप्पणी के बाद अपनी अर्ज़दाश्त लेकर मैं मजलिस-ए-आम्मा यानि साधारण सभा में गया था जहाँ मामले को प्रस्तुत करने के लिए पक्षकारों के नाम लिखने ज़रूरी थे लेकिन शायद आपको ये अच्छा नहीं लगा और आपने उपस्थित होकर मामले को स्वयं ही पुनः गृहण कर लिया है, अब जब मामला आपके पुन: आपके अधिकार में आ गया है तो पुकारा भी आपको ही जाएगा ना ? 

  • आपने मुझे दुरुुस्त किया है कि वर्णित मीर की ग़ज़ल में क़ाफ़िया "अनी" है इसलिए ध्वनि हनी, कनी, फ़नी की गूँज रही है ..शुक्रिया, ठीक वैसे ही जैसे मेरी ग़ज़ल में क़ाफ़िया "अने" है और ध्वनि ठने, रने, हने, कने, टने, जने, खने की गूँज रही है। 
  • आतिश की ग़ज़ल के क़वाफ़ी पर कोई बहस नहीं है बल्कि मैंने उनकी ग़ज़ल यह बताने के लिए कोट की है कि उनकी ग़ज़ल के मतले में क़ाफ़िया "इला" होने के बावजूद दूसरे अश'आ़र "अला" या "उला" के साथ कहना भी दुरूस्त हैं। और आपने भी तो कहा है कि आतिश की ग़ज़ल में सिला, गिला के साथ फ़ासला बिलकुल दुरुस्त है। 
  • रफ़अत शमीम की ग़ज़ल के बारे में आपका इर्शाद है कि शमीम की ग़ज़ल मेरी ग़ज़ल के काफ़िये की तस्दीक़ करती है जिसमें आप को दोष नज़र आ रहा था, ये बेेबुनियाद इल्ज़ाम है, मैंने आपकी ग़ज़ल में दोष तो कभी भी नहीं निकाला था, हाँ पैरिटी लेने के लिए आपकी ग़ज़ल बतौर नज़ीर ज़रूर पेश की है। रफ़अत शमीम की ग़ज़ल यहांँ पेश करने का मक़सद भी वही है, उनकी इस ग़ज़ल में क़ाफ़िया "अते" है और ध्वनि रते, ड़ते, टते आदि की गूँज रही है जैसे मेरी ग़ज़ल में क़ाफ़िया "अने" है और ध्वनि ठने, रने, हने, कने, टने, जने, खने की गूँज रही है।
  • अब जब तक आप मुझे नहीं पुकारेंगे इस बहस में आपको सम्बोधित मेरी यह अन्तिम टिप्पणी है। सादर। 

Comment by Chetan Prakash on September 28, 2020 at 7:07pm

मोहतरम अमीर साहब, भाई नीलेश जी सही कह रहे है। असल में सारी समस्या ध्वनयात्मक विज्ञान को ठीक से न समझ पाने की है।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 27, 2020 at 9:12pm

आ. "अमीर" साहब,
यूँ तो मैं अपनी आख़िरी टिप्पणी कर  चुका हूँ अत: पुन: आना ठीक नहीं लगता है लेकिन चूँकि मेरा नाम पुकारा गया है तो मुझे हाज़िर होना पड़ा.
मीर की ग़ज़ल को एक बार फिर पढ़ें ..थोड़ी देर बाद दोबारा पढ़ें तो शायद आप को ये इल्म हो कि इसमें काफ़िया "नी" नहीं है जैसा आपने फ़रमाया है बल्कि अनी है इसलिए ध्वनि हनी, कनी, फ़नी की गूँज रही है ..
आतिश की ग़ज़ल में सिला, गिला के साथ फ़ासला बिलकुल दुरुस्त है जैसे दर, पत्थर के साथ क़ाफ़िर दुरुस्त आता है.
शमीम की ग़ज़ल मेरी ग़ज़ल के काफ़िये की तस्दीक़ करती है जिसमें  आप को दोष नज़र आ रहा था.
आशा करता हूँ कि आप समझ सकेंगे.
इस सिलसिले में अब कम से कम मुझे आवाज़ न दें तो बेहतर रहेगा क्यूँ कि मैं अपने  वक़्त की क़ीमत जानता हूँ.

सादर 

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 27, 2020 at 8:08pm

//मेरी पिछली टिप्पणी में मुझ से एक त्रुटी हुई है जिसकी ओर ध्यान दिलाने के लिए आपका आभार लेकिन इस के बाद भी मेरे क़वाफ़ी दुरुस्त हैं क्यों की उमड़ते और बिछड़ते योजित काफ़िया होने के बाद भी दोनों के मूल शब्द उमड़/ बिछड़ में "अड़" ध्वनि की राइम है.. आप का काफिया योजित है लेकिन मूल शब्दों में कोई राइम नहीं है..//

//ग़ज़ल के क़वाफ़ी में राइम (तुक) नहीं एण्डराइम (समान तुकान्त शब्द होने) की अनिवार्यता होती है जो आपकी ग़ज़ल में "ते" तथा मेरी ग़ज़ल में "ने" है। और यही बात ग़ज़ल के क़वाफ़ी तय करने में सबसे अहम है।//

//अपनी ग़ज़ल के पक्ष में किसी उस्ताद शाइर की दलील दे सकें तो बेहतर होगा.. अन्यथा आप जैसा उचिल मानें.//

सभी आदरणीय एवं सुधी पाठकगण से निवेदन है कि मेरे द्वारा नीचे उदाहरणार्थ प्रस्तुत की गईं ग़ज़लें या अश'आ़र को आदरणीय नीलेश' नूर' जी और मेरे बीच हुई केवल उपरोक्त बहस के संदर्भ में ही देखा और समझा जाए, अन्यथा नहीं।

मशहूर चमन में तिरी गुल पैरहनी है

क़ुर्बां तिरे हर उज़्व पे नाज़ुक-बदनी है

उर्यानी-ए-आशुफ़्ता कहाँ जाए पस-अज़-मर्ग

कुश्ता है तिरा और यही बे-कफ़नी है

समझे है न परवाना न थामे है ज़बाँ शम्अ'

वो सोख़्तनी है तो ये गर्दन-ज़दनी है

लेता ही निकलता है मिरा लख़्त-ए-जिगर अश्क

आँसू नहीं गोया कि ये हीरे की कनी है

बुलबुल की कफ़-ए-ख़ाक भी अब होगी परेशाँ

जामे का तिरे रंग सितमगर चिमनी है

कुछ तो उभर ऐ सूरत-ए-शीरीं कि दिखाऊँ

फ़रहाद के ज़िम्मे भी अजब कोह-कनी है

हों गर्म-ए-सफ़र शाम-ए-ग़रीबाँ से ख़ुशी हों

ऐ सुब्ह-ए-वतन तू तो मुझे बे-वतनी है

हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन

इन बुल-हवसों में कोई मुझ सा भी ग़नी है

हर अश्क मिरा है दुर-ए-शहवार से बेहतर

हर लख़्त-ए-जिगर रश्क-ए-अक़ीक़-ए-यमनी है

बिगड़ी है निपट 'मीर' तपिश और जिगर में

शायद कि मिरे जी ही पर अब आन बनी है

                                     - मीर तक़ी "मीर"

तोड़ कर तार-ए-निगह का सिलसिला जाता रहा

ख़ाक डाल आँखों में मेरी क़ाफ़िला जाता रहा

कौन से दिन हाथ में आया मिरे दामान-ए-यार

कब ज़मीन-ओ-आसमाँ का फ़ासला जाता रहा

ख़ार-ए-सहरा पर किसी ने तोहमत-ए-दुज़दी न की

पाँव का मजनूँ के क्या क्या आबला जाता रहा

दोस्तों से इस क़दर सदमे उठाए जान पर

दिल से दुश्मन की अदावत का गिला जाता रहा

जब उठाया पाँव 'आतिश' मिस्ल-ए-आवाज़-ए-जरस

कोसों पीछे छोड़ कर मैं क़ाफ़िला जाता रहा

                                        - हैदर अली आतिश

टूट कर आलम-ए-अज्ज़ा में बिखरते ही रहे

नक़्श-ए-ता'मीर जहाँ बन के बिगड़ते ही रहे

अपने ही वहम-ओ-तज़बज़ुब थे ख़राबी का सबब

घर अक़ीदों के बसाए तो उजड़ते ही रहे

जाने क्या बात हुई मौसम-ए-गुल में अब के

पँख पंछी के फ़ज़ाओं में बिखरते ही रहे

चंद यादों की पनाह-गाह में जाने क्यूँ हम

साया-ए-शाम की मानिंद सिमटते ही रहे

हम ने हर रंग से चेहरे को सजाया लेकिन

अपनी पहचान के आसार बिगड़ते ही रहे

                                - रफ़अत शमीम 

उपरोक्त मीर तक़ी मीर की ग़ज़ल के क़वाफ़ी में "नी" तुकान्त है इसके अतिरिक्त ग़ज़ल के क़वाफ़ी के मूल शब्दों में कोई समान राइम नहीं है। यही बात "आतिश" और रफ़अत शमीम की ग़ज़लों में है। 

ये उदाहरण मैं अपनी ग़ज़ल को आदरणीय नीलेश "नूर" जी की मान्यता दिलाने के लिए नहीं अपितु उनके द्वारा दी गई चुनौती को स्वीकार कर केवल इस बहस के परिप्रेक्ष्य में दे रहा हूँ। सादर। 

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 27, 2020 at 6:50pm

आदरणीय जनाब दण्डपाणि नाहक़ साहब आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद हौसला अफ़ज़ाई और ग़ज़ल पसंद करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया। सादर।

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 17, 2020 at 9:45am

सभी रचनाकारों और उस्तादों से विनम्र निवेदन है कि इस ग़ज़ल या मेरी किसी भी रचना को बिल्कुल भी एक आदर्श उदाहरण के तौर पर भले ही न लिया जाए लेकिन जब कभी भी किसी की रचना पर टिप्पणी करें या उसका क्रिटिकल एनालिसिस (विश्लेषण) करें तो रचनाकार की भावनाओं को आहत न करें, इस बात का हमेशा ख़याल रहे कि रचना के सियाह पक्ष की कमियों को इंगित करने के साथ ही उसके उजले पक्ष को भी सराहा जाए रचना में पिरोयी गयी भावनाओं को समझें और हो सके तो उसे अपने सीमित ही सही किन्तु सहीह ज्ञान के अनुसार मार्गदर्शन कर दें कभी हतोत्साहित न करें कभी किसी को भी अपना प्रतिद्वंद्वी न समझें। ऐसी ही भावनाओं के साथ कहना चाहता हूँ कि यदि कभी मेरे द्वारा किसी रचनाकार की रचना पर टिप्पणी करते हुए मेरे द्वारा उसकी भावनाएं आहत हुईं हों या किसी साथी या गुरू के सम्मान को ठेस पहुंची हो तो मैं क्षमा प्रार्थी हूँ। 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 16, 2020 at 2:40pm

आ. अमीर साहब, 
अपनी ग़ज़ल के पक्ष में किसी उस्ताद शाइर की दलील दे सकें तो बेहतर होगा.. अन्यथा आप जैसा उचिल मानें.
सादर 
(अंतिम टिप्पणी)
जो भी नए रचनाकार इस बहस को पढ़ें,, वो यह ध्यान रखें कि ग़ज़ल ऐसे न कही  जाए..

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 16, 2020 at 9:56am

आ. नीलेश 'नूर' जी, आपका कहना है कि 

"इस मंच की परिपाटी है कि सदस्यों की रचनाओं का क्रिटिकल एनालिसिस होता है और इसी परम्परा के तहत आ. समर साहब ने और बाद में मैंने भी अपने सीमित ज्ञान के अनुसार आप की रचना को बेहतर करने का प्रयास किया है"

मुहतरम किसी की रचना में सिर्फ उसके ऐबों को गिनवाने को रचना को बेहतर करने का प्रयास नहीं कहा जा सकता है, आपने सिर्फ और सिर्फ क्रिटिकल एनालिसिस और क्रिटिसाइज़ करने का ही काम किया है जो क्रिटिसिज़्म की मूल भावना के विपरीत है, आपने जिस शब्द क्रिटिकल एनालिसिस का प्रयोग किया है उसके सिर्फ बाएँ पक्ष क्रिटिकल पर ही सारी ऊर्जा लगा दी है उसके दाएँ पक्ष एनालिसिस के मर्म को शायद आप जानते ही नहीं हैं या जानबूझकर नज़र अन्दाज़ कर रहे हैं तभी तो किसी की ग़ज़ल की तुलना एक कार से तथा एनालिसिस करने की तुलना एक लम्बी यात्रा के प्लान से करते हैं और कहते हैं कि "अगर मतले में ही दोष नज़र आ जाए तो आगे बढ़ा नहीं जाता.. जिस गाडी का इंजन स्टार्ट न होता हो, उस में लम्बी यात्रा का प्लान कम से कम मैं नहीं करता.. और फिर ऐसी गाड़ी के इंटीरियर, फीचर्स आदि की तारीफ़ करना बाद की बात है." तो जनाब आपको ये लफ़्ज़ एनालिसिस भी इस्तेमाल नहीं करना चाहिए क्योंकि एनालिसिस का अर्थ विश्लेषण होता है और विश्लेषण गुण और अवगुण के आधार पर किया जा सकता है सिर्फ़ अवगुण के आधार पर नहीं और अगर आप ऐसा नहीं करना चाहते तो फिर आपको विश्लेषण शब्द के बजाय सिर्फ आलोचना शब्द का इस्तेमाल करना चाहिए वैसे आलोचक भी किसी रचना के गुुण और अवगुण दोनों पर चर्चा करते हैं, एक बात और जब कभी लम्बी यात्रा का प्लान बनाएं और स्टार्ट गाड़ी का इंजन यात्रा शुरू करने से पहले या यात्रा के दौरान अचाानक बन्द हो जाए तो एक बार प्रयास ज़रूर कीजियेगा हो सकता है कि बैटरी से वायर हटा हो। 

ग़ज़ल के क़वाफ़ी में राइम (तुक) नहीं एण्डराइम (समान तुकान्त शब्द होने) की अनिवार्यता होती है जो आपकी ग़ज़ल में ते तथा मेरी ग़ज़ल में ने है। और यही बात ग़ज़ल के क़वाफ़ी तय करने में सबसे अहम है। सादर। 

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