आँखों देखी – 5 आकाश में आग की लपटें
भूमिका :
पिछले अध्याय (आँखों देखी – 4) में मैंने आपको बताया था कैसे एक तटस्थ डॉक्टर के कारण हम लोग किसी सम्भावित आपदा को टाल देने में सक्षम हुए थे. शीतकालीन अंटार्कटिका का रंग-रूप ही कुछ अकल्पनीय ढंग से अद्भुत होता है. लगातार दो महीने का अंधकार और साथ ही अनिश्चित मौसम का स्थायी खौफ़ वहाँ रहने वाले अभियात्री के शारीरिक और मानसिक शक्ति की हर घड़ी परीक्षा लेते हैं. ऐसे में अपना संतुलन बिगड़ने न देना एक चुनौती होती है. हर अभियात्री अपने निजी ढंग से इस चुनौती का सामना करता है परंतु दलनेता और अनुभवी एवं वरिष्ठ सदस्य लगातार अन्य साथियों का मार्गदर्शन करते रहते हैं. रोज़ कुछ न कुछ शारीरिक श्रम करना और मानसिक व्यायाम के साथ आवश्यक मनोरंजन अंटार्कटिका के बीहड़ एकांत में नितांत अनिवार्य हैं. इस क्रम में उल्लेखनीय है ‘स्टेशन ड्यूटी‘ अर्थात नियत दिन पर पूरे स्टेशन की साफ़-सफ़ाई करना, स्टेशन के रसोईये सदस्य को किचन में सहायता करना आदि-आदि. यहाँ स्टेशन ड्यूटी के बारे में विस्तार से बताना अतिशयोक्ति नहीं होगी.
हर रोज़ दो सदस्यों की ड्यूटी लगती थी. सुबह आठ बजे से लेकर अगले दिन सुबह आठ बजे तक पूरे स्टेशन में झाड़ू लगाना, जहाँ सम्भव हो वहाँ पोछा लगाना, टॉयलेट की सफ़ाई करना, स्टेशन का कूड़ा बाहर ले जाकर निर्दिष्ट स्थान पर जलाना, भण्डार गृह से सामान लाना और वहाँ ले जाना, जनरेटर तथा अन्य मशीनों पर नज़र रखना, रसोइये को खाना बनाने में सहयोग देना तथा स्टेशन के बाहर से साफ़ बर्फ़ बेलचे से उठाकर अंदर लाना और उसे गर्म करके पानी बनाने के बाद पानी की टंकी भरना आदि काम करने पड़ते थे. चौबीस घण्टे क़मर तोड़ परिश्रम के बाद 6 घण्टे सोने के लिये मिलते थे. जब नींद खुलती और हम खाने की मेज पर पहुँचते. प्राय: इस बात का ज्ञान नहीं होता था कि हम दोपहर का भोजन ले रहे हैं या रात का खाना. जनरेटर चलने का मृदु घर्घर शब्द और उपयोग में लाने वाली कुछ अन्य मशीनों की बिप...बिप....घर्र...घर्र की आवाज़ों के अतिरिक्त मुर्दई सन्नाटा अक्सर हमारा स्वागत करता था. एक महीने में दो सदस्यों की जोड़ी को आम तौर पर बदला नहीं जाता था. अगले महीने जोड़ी बदल दी जाती थी और इस प्रकार से हर सदस्य किसी अन्य सदस्य के साथ यह ड्यूटी निभाता था. यहाँ बताना आवश्यक समझता हूँ कि स्टेशन कमाण्डर, डॉक्टर आदि सभी सदस्य यह ड्यूटी करते थे. हाँ, रसोइये को इस दायित्व से मुक्त रखा गया था. अत्यंत सीमित साधनों के सहारे भिन्न प्रदेशों से आए भिन्न-भिन्न स्वाद रखने वाले चौदह सदस्यों को सुबह से रात तक खाना बनाकर खिलाना अपने आप में एक बहुत बड़ा काम था.
स्टेशन ड्यूटी के अंतर्गत ऐसे अनुभव होते थे जिनकी यहाँ तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है. एक ऐसा ही अनुभव आज की कहानी की पृष्ठभूमि है.
कथा :
जून 1986 की एक बेहद ठण्डी रात – बाहर का तापमान शून्य से 42°सेल्सियस नीचे अर्थात माईनस 42° सेल्सियस था लेकिन आसमान साफ़ था. ऐसे सुंदर मौसम में खुले आकाश के नीचे अंटार्कटिका का नज़ारा क्या होगा सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है.
उस दिन मेरी स्टेशन ड्यूटी थी. मैं बहुत देर से इस प्रतीक्षा में था कि दल के सदस्य खाना खा लें, हम रसोई साफ़ कर दें तो पूरे स्टेशन का कूड़ा लेकर बाहर जाऊँ. ठण्ड कितनी भी हो मुझे खुले आसमान के नीचे काम करने में बहुत अच्छा लगता था. अधिकांश साथी अभियात्री मात्र प्रकृति देखने के लिये जूते-कपड़े से लैस होकर स्टेशन से बाहर नहीं जाना चाहते थे. अत: मुझे अपने साथी को जिनकी ड्यूटी मेरे साथ ही थी को यह समझाने में बिल्कुल समय नहीं लगा कि वे जनरेटर रूम की जाँच कर लें और स्टेशन के भीतर सफ़ाई का बचा-खुचा काम कर दें – मैं कूड़ा बाहर ले जाकर ठीक जगह पर उसे दबा आऊँगा.
पीठ पर काले प्लास्टिक की बोरी में कूड़े का बोझ लेकर जब मैं संकरे चिमनीनुमा रास्ते से खड़ी सीढ़ी के सहारे बाहर आया तो सनसनाती ठण्ड अंटार्कटिक सूट को भेदकर मेरी हड्डी को छू गयी. वातावरण एकदम शांत था. अंधेरे आकाश में करोड़ों टिमटिमाते तारे और मेरे चेहरे के मास्क (मुखौटे) पर छोड़ी गयी साँस का बर्फ़ के कण बन उनका जमना एक अलौकिक अनुभूति से मुझे अभिभूत कर रहे थे. मैंने पीठ के बोझ को हाथ से खींचने वाले स्लेज गाड़ी पर रखा और प्रकृति का सम्पूर्ण नज़ारा अपनी चेतना में उतारने का संकल्प कर धीरे से उत्तर की दिशा की ओर – जिधर समुद्र अब दूर दूर तक जम गया था – घूम गया. और जो कुछ मैंने देखा उससे मेरी नज़रें अँटक ही गयीं... मैं स्तम्भित हो गया था.
समुद्र के ऊपर आसमान तक आग की लपटें उठ रही थीं. लग रहा था किसी बड़े शहर में भीषण आग लग गयी हो और मैं 15-20 किलोमीटर दूर से उसे निहार रहा होऊँ. मैं जानता था कि शहर तो दूर की बात, मनुष्य की निकटतम स्थिति (हमारे स्टेशन के बाहर) एक सौ किलोमीटर दूर रूसी अनुसंधान केंद्र नोवोलज़ारेव्स्काया था, वह भी दक्षिण की ओर. अत: मन ने कहा यह आग किसी बड़े जहाज़ में ही लगी होगी. फिर सोचने लगा किसी जहाज़ के आने की तो कोई ख़बर नहीं थी. तभी ध्यान आया कि समुद्र तो लगभग 2000 किलोमीटर दूर तक जम गया है. कोई जहाज़ आ भी तो नहीं सकता.
जब कुछ समझ में नहीं आया तो स्टेशन के भीतर जाकर सबको इस आग के बारे में सूचित करना मैंने अपना अति आवश्यक कर्तव्य समझा. अंदर कुछ लोग कैरम खेल रहे थे तो कुछ लायब्रेरी से लेकर पुस्तक पढ़ रहे थे. दो एक सदस्य अपने केबिन में चले गये थे. हमारे दलनेता सामने लाऊंज में ही मिल गये. मैंने जब उन्हें आग की लपटों के बारे में बताया तो उन्होंने सोचा कि मुझे हैलुसिनेशन अर्थात विभ्रम हुआ है. अंटार्कटिका के अलौकिक परिवेश में अकेलेपन और मानसिक क्लांति के शिकार अभियात्री प्राय: ऐसे विभ्रम में पड़ते हैं. लेकिन मेरे आग्रह पर दलनेता अपने कपड़े-जूते आदि पहनकर बाहर आने लगे तो कई लोग उनका साथ देने हमारे साथ हो लिये. जब हम बाहर आये तो लपटें वैसी ही थीं बल्कि थोड़ी और दूर तक फैली हुई लगीं मुझको. कुछ पल सभी चुप थे. किसी को इस रहस्य का हल नहीं सूझ रहा था. तभी अचानक दलनेता, जो हमारे इस चौदह सदस्यीय दल में अकेले ऐसे थे जिन्हें शीतकालीन अंटार्कटिका का पूर्व अनुभव था, हमारी ओर मुड़े और चुनौती भरे अंदाज़ में बोले, ‘जल्दी से बताओ यह phenomenon क्या है...जल्दी क्योंकि शीघ्र ही ये लपटें लुप्त हो जाएँगी ‘.
इससे पहले कि हम लोगों का दिमाग काम करता और हम उनके दिये सूत्र को पकड़कर कोई उत्तर ढूँढ़ते, दलनेता ने स्वयं कहा कि आसमान में बहुत ऊपर तक बहुत ही छोटे आकार के लाखों-करोड़ों बर्फ़ के क्रिस्टल झालर की तरह लटके हुए हैं जिनसे परावर्तित होकर उगते हुए चाँद की किरणें आग के लपटों का भ्रम पैदा कर रही हैं. जैसे ही चाँद क्षितिज के ऊपर आयेगा यह दृश्य लुप्त हो जायेगा. जो दो-एक सदस्य बाहर आते समय अपना कैमरा साथ लाये थे उन्होंने जैकेट के भीतर से कैमरा निकाला और उस अद्भुत नयनाभिराम दृश्य को कैद करना चाहा. लेकिन माईनस 42° सेल्सियस तापमान सहना उन दिनों के साधारण कैमरों के लिये सम्भव नहीं था. सभी के शटर जैम हो गये थे. फलत: वह दृश्य केवल हम कुछ सदस्यों के मानसपट पर चित्रित है. देखते ही देखते चाँद मानो हमारी अज्ञानता पर हँसता हुआ क्षितिज से ऊपर आया. लपटें सिमटती गयीं और तारों भरा आकाश हमारे अनुभव की झोली में झांकता हुआ टिमटिमाता रहा.
हम सब प्रकृति की एक अतुलनीय लीला के साक्षी बनकर भरे हृदय से स्टेशन में वापस आये और बहुत देर तक गहरी सोच में डूबे रहे. आने वाले समय में स्टेशन ड्यूटी के दौरान ही मुझे कुछ और रोचक अनुभव हुए जिनका विवरण अवश्य आपसे साझा करूंगा.
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(मौलिक व अप्रकाशित सत्य घटना)
Comment
आदरणीय शरदिंदु जी, आज कई दिनों के बाद ओ बी ओ के बलाग्स देखने पर आपके आलेख पर नज़र गई और झट
इसे पढ़ने को मन हुआ। सदैव समान यह आलेख भी अति रोचक है। प्रकृति का ऐसा अनोखा खेल आपको देखने को मिला
और आपने इस खूबसूरती से हमारे साथ इसे साझा किया, इसके लिए धन्यवाद।
सादर,
विजय
आदरणीय शरदिन्दुजी, जिस शैली में आपने प्रस्तुत अनुभव को साझा किया है वह कथ्य को रोचक, प्रस्तुति को संग्रहणीय तथा कथानक को स्मरणीय बनाती है.
क्षितिज पर की या उसके नीचे की किरणों का रिफ्रैक्शन (Refraction - किरणों की बहुमाध्यमजनित वक्रता या किरणों का आवर्तन) इतना अद्भुत होगा, इतना मनोरम होगा, इतना मोहक होगा, इसकी तो हम मात्र कल्पना ही कर सकते हैं !
एक तो भौगोलिक रूप से अंटार्कटिका की कोणीय स्थिति, जोकि अपने आप में हमारी अनुभूतियों की समस्त सीमा के परे है. उस पर से निरभ्र प्रतीत होते किन्तु हिमकणों से अँटे पड़े आकाश में ऐसी भौगोलिक घटनाएँ नित नये चमत्कार ही तो करती होंगीं !
विशिष्ट अनुभवों को साझा करती इन प्रस्तुतियों में आपकी लेखन-क्षमता अपने समुचित उभार पर होती है. आपके जीये पलों का रोमांच खुल कर इस प्रस्तुतीकरण में भी दिखा है. और दीखा है, इन्हें साझा करने के क्रम में आपका उत्साह जो हम सभी पाठकों के लिए थाती और लेखन-उदाहरण है.
इस अनुभव को साझा करने लिए पुनः सादर धन्यवाद.
अन्य कड़ियों की बेसब्री से प्रतीक्षा रहेगी.
सादर
//यह तो कटु सत्य ही है कि अज्ञानता के कारण ही हम सभी 33 करोड़ देवी-देवताओं का अपने मानस पटल में चिरस्थायी स्थापना करके रहस्यो की भूलभुलईया के 84 लाख योनियों में भटकने को मजबूर हैं।//
भाई केवल प्रसादजी, आप यह कैसे जाने हैं कि उपरोक्त मान्यता ’हमारी’ अज्ञानता के कारण है ?
क्या प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग हम नहीं करते ? तथ्यार्थ और निहितार्थ को समझने के पूर्व कुछ या कछ भी कह देना लगा यह, अतः आपसे प्रश्न कर बैठा.
आगे यों आपने सही कहा है प्रकृति के खेल अचम्भित करते हैं. उसे आगे समझें तो ये मनुष्य को गहरे प्रभावित भी करते हैं.
सादर
भाई वीनस जी, धन्यवाद. पिछले संस्मरण भी अवश्य पढ़िये और अपने विचारों से मुझे अवगत कराएँ. सादर.
बृजेश जी, मेरा सारा अनुभव धन्य हो गया आप सबकी आत्मीय प्रतिक्रिया से. सादर आभार.
आदरणीय शिज्जु शकूर जी, आपका हार्दिक आभार. आपने मुझे अपने संस्मरणों को साझा करने का सिलसिला बनाए रखने के लिये अप्रत्यक्ष रूप से प्रेरित किया है. आशा है आगे भी यह स्नेह बना रहेगा. सादर.
आपका बहुत बहुत आभार कि इतने अमूल्य अनुभव हम सबके साथ आपने साझा किया, जो शायद हम लोगों की किस्मत में अनुभव करने के लिए नहीं थे. इसे फिर से इत्मिनान से पढूंगा.
आपको सादर नमन!
आदरणीय शरदिंदु जी , नाम गलत पढ़्ने के लिये क्षमा करेंगे !!!!! आगे से ध्यान रखूंगा !!!!!
आदरणीय शरदिंदु सर जैसे जैसे एक एक शब्द के साथ मैं बढ़ता चला गया बिल्कुल डूबता चला गया और पढ़ते पढ़ते मानो खुद ही अंटार्कटिका पहुँच गया मैं पढ़ के ही रोमांचित हो गया जबकि आपने उस पल को जिया था, वाह, कल्पना भी नही कर सकता कि आपने कैसा महसूस किया होगा, मगर आपके संस्मरण को पढ़कर ऐसा लगा जैसे कि वह दृश्य मेरे सामने आ गया हो,इस खूबसूरत प्रस्तुति के लिये आपको बधाई l
वाह मज़ा आ गया .... अब जल्दी ही पुराने अंक भी पढूंगा
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