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तरही ग़ज़ल (212-212-212-212)

(212-212-212-212)

मेरे सुर से तेरा सुर मिलाना हुआ
और जीवन मेरा इक तराना हुआ ॥

मैने देखी है इक चलती फ़िरती ग़ज़ल
है मिजाज इस लिए शायराना हुआ ॥

आइए हमनशी बैठिए पलकों पर
ये कहें  ख्वाब में कैसे आना हुआ ॥

थी दवा तो वही काम तब कर गई
जब तेरा अपने हाथों पिलाना हुआ ॥

वो भी लगने लगे अब मुझे अपने से
"जब से गैरों के घर आना जाना हुआ ॥"

हज़्म कैसे करेंगे मेरी ये ग़ज़ल
वो जो खाते हैं बारीक छाना हुआ ॥

देख के तुझ को ये ठण्डी आहें भरे
दिल मेरा बर्फ़ का कारखाना हुआ ॥

(मौलिक एवम अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Mohammed Arif on February 19, 2017 at 5:00pm
आदरणीय गुरप्रीत जी आदाब, बहुत बेहतरीन ग़ज़ल कही है आपने ।हर शे'र उम्दा लगा मुझे । कथ्य में बड़ी सादगी नज़र आई । वास्तव में ओबीओ मंच नवहस्ताक्षरों के लिए वरदान है । जहाँ सवाल ग़ज़ल की बह्र का है तो समर कबीर से बड़ा अरूज़ी कौन है । वे ही अच्छा मार्ग दर्शन करेंगे । दिली मुबारकबाद ।
Comment by नाथ सोनांचली on February 19, 2017 at 3:06pm
आद0 गुरप्रीत जी सादर अभिवादन। मुझे आपकी गजल बेहद पसंद आयी। बेहतरीन ढंग से आपने लिखा है। मुझे शिल्प का विशेष ज्ञान तो नही पर हाँ कथ्य बेहतर लगा। बधाई आपको उम्दा सृजन के लिए।
Comment by Gurpreet Singh jammu on February 18, 2017 at 8:57am
सभी गुरुजनों और दोस्तों को मेरा नमस्कार.....जैसा कि आप जानते हैं कि मैने अभी ग़ज़ल सीखना शुरू किया है..और इस प्रकिर्या में इस मंच ने मेरा मार्गदर्शन कर रहा हैं .....मेरी रचना में जो गलतियां होंगी वो तो आदरणीय समर कबीर जी और अन्य गूरूजन बता ही देंगे......लेकिन मेरी विनती है कि अगर पढ़ने वाले किसी को भीे किसी शेअर के बारे में लगे कि यह शेअर कुछ कमज़ोर है या इसे ऐसे कहते तो और बेहतर होता......अगर कोई मेरी रचना में कुछ सुधार करना चाहे तो उसका खुले दिल से स्वागत है और मैं आपका बहुत आभारी होऊंगा. क्योंकि मुझे अपने हरेक शेअर के बारे में ऐसा ही लगता है कि इसमें कुछ न कुछ कमी रह गई है ..कई बार शेअर ठीक ठाक होता है और व्याकरण और बह्र की कसौटी पर भी खरा उतरता है लेकिन फ़िर भी कुछ खास बात नही बनती..ऐसी हालत में आप सब के सुझाव बहुत कीमती होंगे..क्योंकि यह यह मंच मेरे लिए सीखने का बहुत बड़ा ज़रिया है.....
जब समय मिलता है तो मैं ओ बी ओ के पुराने अंकों को पढ़ लेता हूँ...बहुत कुछ सीखने को मिलता है...यह ग़ज़ल भी obo के 42वे तरही मुशायरे में दिए गए मिसरे "जब से गैरों के घर आना जाना हूँ" पर लिखी है...
आप सब का बहुत बहुत धन्यवाद

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