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योगराज प्रभाकर's Blog – May 2010 Archive (3)

ग़ज़ल नo- ३ (योगराज प्रभाकर)

ये काग़ज़ पे लिखी तरक्कियां, कुछ और कहती हैं

मगर लाखों करोड़ों झुग्गियां, कुछ और कहती हैं !



बड़ा फराख दिल है शहर तेरा शक नहीं मुझ को ,

ये हर-सू बंद पड़ी खिड़कियाँ, कुछ और कहती हैं !



तेरा दा'वा है कि अमन-ओ-सकूं है शहर में सारे,

मगर अख़बार की ये सुर्खियाँ, कुछ और कहती हैं !



मुझे यकीं नहीं आता बहार आ गयी, क्यों कि

उदास चेहरे लिए तितलियाँ, कुछ और कहती हैं !



मुझे गुमान था कि मैं बना हूँ खुद के ही दम से,

मेरे बापू की बूढी हड्डियाँ,… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on May 10, 2010 at 10:30am — 13 Comments

ग़ज़ल नo-२ (योगराज प्रभाकर)

शाहराह-ए-ज़िन्दगी पे अँधेरा ज़रूर था,

पर उस के पार दिन का भी डेरा ज़रूर था !



ये मैं ही था जो तीरगी में मुब्तिला रहा,

उसने तो रौशनी को बिखेरा ज़रूर था !



जेहन-ओ-ख्याल में बसा था और ही कोई,

हाँ, ले रहा वो सातवाँ फेरा ज़रूर था !



आंसू छुपा रहा था जो चश्मे कि आड़ में,

बिछुड़ा हुआ साथी कोई, मेरा ज़रूर था !



मीलों तलक तवील था उस घर में फासला

वो घर नहीं था, रैन बसेरा ज़रूर था !



जो कौड़ियों के मोल लूट ले गया खिज़ां

वो… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on May 5, 2010 at 10:30pm — 15 Comments

ग़ज़ल नo-१ (योगराज प्रभाकर)

नफरत का अन्धकार यूं फैला दिखाई दे

नाम-ओ-निशान अमन का मिटता दिखाई दे !



काशी दिखाई दे कभी का'बा दिखाई दे,

नन्हा सा बच्चा जब कोई हँसता दिखायी दे !



जिनको भी ऐतमाद है अपनी उड़ान पर

उनको आसमान भी छोटा दिखाई दे !



वो शख्स जिसकी नींद ही खुलती हो शाम को,

उसको ये आफताब क्यूँ चढ़ता दिखाई दे !



खिड़की ही जब नहीं है कोई घर के सामने,

फिर कैसे भला चाँद का टुकड़ा दिखाई दे !



श्रद्धा नहीं तो हर नदी पानी के सिवा क्या ?

श्रद्धा हो ग़र… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on May 4, 2010 at 2:07pm — 15 Comments

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