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राजेश 'मृदु''s Blog (78)

तेरे बाद

तुमने जो भी बात कही थी

सबको माना तेरे बाद

हो गई अपनी पीर पराई

हँस के जाना, तेरे बाद

बोझिल राते खुल के बोलीं

दिन बतियाया तेरे बाद

तेरे रहते था मैं बूढ़ा

खिली जवानी तेरे बाद

तुझे देख जो बादल गरजे

जमकर बरसे तेरे बाद

हो गई सारी दरिया खारी

रो-रो जाना, तेरे बाद

तेरे रहते दर-दर भटका

मंजिल पाई तेरे बाद

हाथों की वो चंद लकीरें

बनीं मुकद्दर तेरे बाद

यह भी तेरी…

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Added by राजेश 'मृदु' on May 2, 2013 at 4:46pm — 15 Comments

तेरे युग में, मेरे युग में/पापा कोई मेल नहीं है

अलसाई

आंखों से उठना

जूते, टाई

फंदे कसना

किसी तरह से

पेट पूरकर

पगलाए

कदमों से भगना

ज्ञान कुंड की इस ज्‍वाला में

निश दिन जलना खेल नहीं है

तेरे युग में .....................

पंछी, तितली

खो गए सारे

धब्‍बों से

दिखते हैं तारे

फूल, कली भी

हुए मुहाजि़र

प्राण छौंकते

कर्कश नारे

धक्‍के खाते आना-जाना

धुआं निगलना खेल नहीं है

तेरे युग…

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Added by राजेश 'मृदु' on April 29, 2013 at 1:55pm — 15 Comments

बौने मानव

आधी रात के सपने देकर

तुम मुझको बहला देते हो

जब चाहे जी

अपना लेते हो

जब चाहे जी

ठुकरा देते हो

कैसे लिखूं

तुमको पतियां

तुम वादे

झुठला देते हो

आधी रात के ................

या देवी का

जयघोष तो करते

फिर क्‍योंकर

चुभला देते हो

अपने छत पर

बाग लगाकर

कलियों को

दहला देते हो

आधी रात के ................

कहती हूं जो

तुमको…

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Added by राजेश 'मृदु' on April 26, 2013 at 2:41pm — 17 Comments

बाबू मैं बाजारू हूं

ना मैं बेटी ना ही मां हूं

केवल रैन गुजारू हूं

रम्‍य राजपथ, नुक्‍कड़ गलियां

सबकी थकन उतारू हूं

बाबू मैं बाजारू हूं ........बाबू मैं बाजारू हूं

अंधेरे का ओढ़ दुशाला

छक पीती हूं तम की हाला

कट-कट करते हैं दिन मेरे

रिस-रिस रात गुजारूं हूं

बाबू मैं बाजारू हूं ........बाबू मैं बाजारू हूं

जात-पात का भेद ना मानूं

ना अस्ति ना अस्‍तु जानूं

घुंघरू भर अरमान लिए मैं

सबका पंथ बुहारू…

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Added by राजेश 'मृदु' on April 11, 2013 at 6:05pm — 33 Comments

सोच रहा है राजू

रंग भरे

फागुन के चेहरे

संग रीता

सुख चैन

टनटन करती

भाग रही फिर

अग्निशमन की वैन

होंठ चाटता

बेबस राजू

सोच रहा

फिर आज

चूते छप्‍पर

सर्द रात दे

तुष्‍ट नहीं क्‍यों ताज

तैर रही

उसकी आंखों में

मात-पिता की देह

आवास इंदिरा

के नीचे ही

कुचल गया

जो नेह

है तो वो

जनजाति का पर

पाए कहां प्रमाण

दैन्‍य रेख पर

अमला…

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Added by राजेश 'मृदु' on April 10, 2013 at 1:18pm — 7 Comments

दाइज ऐसा देना बाबुल

दाइज ऐसा देना बाबुल

जिससे तन-मन जले नहीं

दर्द-वेदना के सिक्‍कों से

जो बेबस हो तुले नहीं

ना गुलाब की कलियां न्‍यारी

स्‍वर्णहार ना चूड़मणि

नहीं मुलायम गद्दी, सोफे

नहीं रेशमी लाश बुनी

देना बाबुल ऐसा ताला

जो बुद्धि पर लगे नहीं

अम्‍लान रूढि़यों की ठोकर से

जो बेदम हो खुले नहीं

लाड़-प्‍यार चाहे ना देना

ना लेना मेरी पोथी

जनमजली ना करना मुझको

शिक्षा बिन सब हैं रोती

देना…

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Added by राजेश 'मृदु' on April 4, 2013 at 4:24pm — 9 Comments

दोहे

विधना तेरे रूप में, आया कहां निखार

बेशकीमती ब्‍लीच औ, लोशन मले हजार

मौनी बाबा टल्‍ली हैं, आफत में युवराज

घूर रहा जो ताज को, गुजराती परबाज

शहर गाल में गांव हैं, कोलतार में पैर

बेदम होकर हांफती, सुबह-शाम की सैर

ट्रैफिक की हर चीख पर, सिग्‍नल मारे आंख

रेल-बसों में चुप खड़े, सहमे डैने, पांख

अनशन पर कोई अड़ा, कोई हुआ मलंग

इटली वाले रंग में, किसने घोला भंग

नदी रही नाला हुई, किसपर नखरे नाज…

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Added by राजेश 'मृदु' on April 3, 2013 at 12:54pm — 8 Comments

छू लो तुम एकबार -- सुरमयी, छू लो तुम एकबार

कटी फसल सा

पड़ा हुआ हूं

मिटा गझिन आकार

परती धरती

धूम धनुष ले

करती तीक्ष्‍ण प्रहार

छू लो तुम एकबार -- सुरमयी, छू लो तुम एकबार

कर्म ताल में

कीच भर गए

यत्‍न सकल बेकार

मन की घिर्नी

घूम थक चुकी

पंथ मिला ना द्वार

छू लो तुम एकबार -- सुरमयी, छू लो तुम एकबार

जलद पटल

क्‍या चित्र बनाऊं

किसपर करूं सिंगार

स्‍वर्णमृग तो

राम साधते

मुझे चापते हार

छू लो तुम एकबार --…

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Added by राजेश 'मृदु' on March 25, 2013 at 12:24pm — 4 Comments

खोखले नारे उठाए/भागता जाता शहर है (राजेश झा)

काग़जी

सारी कवायद

बोल में

रेशम-तसर है

*गुंजलक में

कै़द वादों

से हकीकत

मुख्‍तसर है

खोखले नारे उठाए ...............

*कर्दमी

लोबान जलते

टापता

दूभर डगर है

बेरूखी

कहती हवा की

फाग कितना

बेअसर है

खोखले नारे उठाए ...............

स्‍तब्‍ध

चंपा, नागकेसर

बर्खास्‍त सेमल

की बहर है

बिलबिलाते

नीम, बरगद

*भवदीय भौंरा

ही निडर…

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Added by राजेश 'मृदु' on March 22, 2013 at 1:43pm — 5 Comments

फागुन मन कंगाल सखी (राजेश कु0 झा)

बनिक भए

रंगरेज मेरे

बिछुआ, पायल

बेहाल सखी

फन काढ़

समीरन लाल चले

अंतर धधके सौ ज्‍वालमुखी

गठ जोड़ नयन

स्‍वादे आहट

कनखी जी का

जंजाल सखी

इत राग महावर

झाईं पड़े

उत फागुन है उत्‍ताल सखी

मन के झूमर

चुप बैठ गए

चूते अमिया

दुरकाल सखी

भ्रू-चाप चुने

महुआ नागर

मुसकै भदवा बैताल सखी

रस रस गलती

चलती चरखी

हर आस भई

पातालमुखी

अरदास…

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Added by राजेश 'मृदु' on March 12, 2013 at 1:52pm — 11 Comments

रूठे घर में मानमनौव्‍वल/के दीपों को पलने दो

रूठे घर में मानमनौव्‍वल

के दीपों को पलने दो

बहुत हो चुकी

टोका-टोकी

लस्‍टम-पस्‍टम

जीवन झांकी

बंद गली को

चौराहों से

गलबहियां दे

चलने दो

कोरी रातों में कलियों को

पल-दो-पल तो खिलने दो

अंधेरे में

डूबे घर भी

हमें देख

सकुचाते हैं

कल तक लगते

थे जो अपने

अब बरबस

डर जाते हैं

जंजीरों में बंधे बहुत अब

पंख जरा तो मलने…

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Added by राजेश 'मृदु' on March 7, 2013 at 3:00pm — 11 Comments

छंद सरसी में एक रचना (राजेश कु0 झा)

खुरच शीत को फागुन आया

फूले सहजन फूल

छोड़ मसानी चादर सूरज

चहका हो अनुकूल

गट्ठर बांधे हरियाली ने

सेंके कितने नैन

संतूरी संदेश समध का

सुन समधिन बेचैन

कुंभ-मीन में रहें सदाशय

तेज पुंज व्‍योमेश

मस्‍त मगन हो खेलें होरी

भोला मन रामेश

हर डाली पर कूक रही है

रमण-चमन की बात

पंख चुराए चुपके-चुपके

भागी सीली रात

बौराई है अमिया फिर से

मौका पा माकूल

खा…

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Added by राजेश 'मृदु' on March 6, 2013 at 12:44pm — 12 Comments

पोखराज (राजेश कुमार झा)

बाबा आए, बाबा आए

भरे हुए दो झोले लाए


झोले में सपनों की बातें

तारों भरी सुहानी रातें


देख उन्‍हें राजू भी दौड़ा

कर्मकीट सा…
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Added by राजेश 'मृदु' on March 5, 2013 at 5:44pm — 3 Comments

सब्‍ज कर सारा जहां (छोटी सी कविता/राजेश कुमार झा)

चार दशकों
के सफर में
चढ़ लिए
मंजिल कई
कुछ ने सांकल
जड़ दिए
बन गए
घुंघरू कई
रूबरू हूं
धूप से अब
चांदनी
मिलती कहां ?
अक्‍स मेरा
घुल गया है
सब्‍ज कर
सारा जहां

(मौलिक रचना)

Added by राजेश 'मृदु' on March 1, 2013 at 6:15pm — 9 Comments

शपथ

अभिचार सा

करता

छिड़कता जल

चला था,

शून्‍य पथ

धर अफीमी

रूप कोई

रात थी

बेहद सुरत

कुछ धुरंधर

मेघ भी तो

कर गए

नि:शब्‍द ही

गलफड़े भर

श्‍वांस भरके

थे खड़े

कुछ दर्द भी

ढह ना पाई

रोशनी पर

ना हुई

पथ से विपथ

करबले की

ओर बढ़ते

पांवों में थी

जो शपथ

Added by राजेश 'मृदु' on February 28, 2013 at 12:31pm — 9 Comments

बोल मेरे अर्पण

बोल मेरे अर्पण

तुझको क्‍या लुभाए

डैनें बांध रहना

या उड़ना जग उठाए

मूड़ता जो माथा

है वह अनादि गाथा

आवर्त की ये रूनझुन

पथ में सभी ने पाए

रोहित न हो तू लोहित

आकर है तू तो शोभित

स्‍वर दे जरा गमक दे

अनहद तुझे बुलाए

इक दृष्टि अपलक दे

सोंधी सी इक धमक दे

यह चक्र जो अनघ है

सबको ही आजमाए

नीरव निशा जो रहती

श्‍यामल सी चोट सहती

भासित उसी से…

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Added by राजेश 'मृदु' on February 26, 2013 at 10:54am — 4 Comments

जब कामदेव संतप्‍त हुए (चौपाई)

जब शिवजी का ध्‍यान भंग करने के लिए मदनदेव को कहा गया तो वे राजी तो हो गए किंतु उनका मन गहरी सोच में पड़ गया उनकी कशमकश को दर्शाने के लिए चौपाईयां लिखी जिसमें आवश्‍यक सुधार आदरणीय अम्‍बरीष जी ने सुझाया जिसके बाद इसे ओबीओ के पटल पर रखने का साहस कर पा रहा हूं ।…

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Added by राजेश 'मृदु' on February 8, 2013 at 12:07pm — 5 Comments

बिना किसी अनुरणन के

*मध्‍यमेधा का

एक चम्‍मच सूरज उठाए

कर्मनाशा आहूतियों को

जब भी मढ़ना चाहा

राग हिंडोल के वर्क से

अतिचारी क्षेपक

हींस उठे

पिनाकी नाद से

और डहक गया

सारा उन्‍मेष.......

तकलियां.....

बुनती ही रहीं

कुहासाछन्‍न आकाश

बिना किसी अनुरणन के

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

*मध्‍यमेधा- मध्‍यम वर्ग की मेधा (बांग्‍ला शब्‍दार्थ)

Added by राजेश 'मृदु' on February 6, 2013 at 1:53pm — 10 Comments

फिर भी क्‍योंकर

मन में अक्षय स्‍नेह सभी के

समरस भाव प्रवणता है

फिर भी जाने क्‍योंकर सबने

बांटी कलुष,कृपणता है

छूत-पाक का लावा-लश्‍कर

हुलस चूम कब यम आया

कसक धकेले, सदा अकेले

बूंद-बूंद कब ग़म आया

फंसा जुए में गला सभी का

पगतल अतल विकलता है

जाने फिर भी हर लिलार पर

किसने मली खरलता है

तपिश उड़ेले स्‍वाद कषैले

लिए जागते दीप कहां

रूचिर अधर पर लुटे प्राण को

मिला दूसरा सीप…

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Added by राजेश 'मृदु' on February 1, 2013 at 11:19am — 10 Comments

झूठ का सच (व्‍यंग्‍य)

झूठ सुहाना होता प्रियवर

सबके ही मन भाता है

ऐसी है यह लिपि अनोखी

हर भाषा में चल जाता है

झूठ धर्म इतना समरस है

हर देश में रच-बस जाता है

समता का संदेश सुहावन

जन-जन में फैलाता है

झूठ जानती केवल अपनाना

नहीं किसी को ठगती है

सातों जन्‍म निभाती सुख से

वफा हमेशा करती है

झूठ तो एक भोली कन्‍या है

जो चाहे मन बहलाता है

जब चाहे जी अपनाता इसको

जब चाहे जी ठुकराता…

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Added by राजेश 'मृदु' on January 31, 2013 at 12:30pm — 11 Comments

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