कभी हँसते कभी रोते समय की कानों में आहट
अरमानों की उतरती-चढ़ती लम्बी परछाइयाँ
आकारहीन अँधेरे में अंधों की तरह
अभी भी हम एक-दूसरे को खोजते हैं
इस खोज में तेरे आँसुओं ने मुझको
बहुत दिया
इतना दिया कि मुझसे आज तक
झेला नहीं गया
काँपती परछाइयों में तुम आई, हर बार
मन का पलस्तर उखड़ गया
स्वर तुम्हारे, कभी स्वर मेरे रुंधे हुए
खोखले हुए
तुमको, कभी मुझको सुनाई न दिए
पर सुन लेती हैं…
ContinueAdded by vijay nikore on November 15, 2016 at 3:08pm — 10 Comments
असंतोष की छटपटाहटें समेटते
गहन वेदना की छायाओं में पले
टूटे विश्वास के घाव खुले-के-खुले
न सिले
सिले ओंठ उन घावों की आस्था की
तकलीफ़ भरी पुकार के
मिट्टी के ढेले के उड़ गए कण हों मानो
उन घावों के मैदान से तुम तक अब
कोई आवाज़ तक नहीं आती
आदि से अनन्त हुए
सनातन संघर्षी घावों की आयु है कब से
तुम्हारे संवेदनशील भावों से अनजान
घायल दिन का अस्थि-पंजर समेटे
एक और न गुज़रती रात की अकथनीय पीड़ा…
ContinueAdded by vijay nikore on October 31, 2016 at 3:00pm — 6 Comments
भीतर पुराने धूल-सने मकबरे में
धुआँते, भूलभुलियों-से कमरे
अनुभूत भीषण एकान्त
विद्रोही भाव
जब सूझ नहीं कुछ पड़ता है
कुछ है जो घूमघाम कर बार-बार
नव-आविष्कृत बहाने लिए
अमुक स्थिति को ठेल…
ContinueAdded by vijay nikore on October 19, 2016 at 11:00pm — 14 Comments
क्षणिका .. १
सूखी पीली झाड़ी सरीखा बाँझ रिश्ता
अँधियाले भरी सांझ में मानो कोई घायल पक्षी
वेदनाओं की नीली गुत्थियाँ खोले
क्षणिका .. २
कुम्हलाए साँवले रिश्ते के उदास बगीचे में
सुनता हूँ, "स्नेह अभी भी है"
पर अनस्तित्व को अस्तित्व देती
उस स्नेह में अब मीठी चाशनी नहीं है
क्षणिका .. ३
गहरे अकेले प्रश्नों से बिम्बित
पुराना वेदनामय अस्तित्व ...
बहती है अभी भी रुधिर…
ContinueAdded by vijay nikore on August 22, 2016 at 5:00pm — 6 Comments
मेरा बीसवीं सदी का पुरातन स्नेह
यह इक्कीसवीं सदी के तुम्हारे
कभी न बदलने के वायदे
स्नेह की किरणों के पुल पर
एक संग उठते-गिरते-चलते
यह संवेदनशील हृदय कभी
तुम्हारा संबल बना था
चाँदनी-सलिल-सा तरल स्नेह
जीवन-यथार्थ का पिघला हुआ कुंदन ...
कहती थी
इसकी अमोल रत्न-सी आभा
थी तुम्हारी रातों में तेजोमय प्रेरणा
या असंतोष की धूप की छटपटाहटों में
ज्यों लहराई सनातन सत्यों की…
ContinueAdded by vijay nikore on July 10, 2016 at 3:59pm — 8 Comments
कोई कल्पना-स्वप्न ही होगा शायद
हुआ जो हुआ, वह इरादतन नहीं था
नियति की काल-कोठरी को बूझा है कौन
‘ कहाँ- कहाँ था मेरा दोष ’ का गंभीर भान
दोष कहीं कोई तुम्हारा नहीं था
जीवन के आरोह-अवरोह से डरी-डरी
अज्ञात भय से भीगी तुम कह देती थी ...
अनहोनी का होना कोई नया नहीं है
और मैं, गई रात की हिमीभूत टीस छिपाये
हलके-से दबाकर हाथ तुम्हारा
मुस्करा देता था
उस गंभीर पल को छल देता था
अनगिन…
ContinueAdded by vijay nikore on July 8, 2016 at 5:43pm — 12 Comments
आज तुम असमंजस में क्यूँ हो
देखकर गंगा में बहते फूलों को
जब तुम ही नहीं हो अब सुनने को
अब अपाहिज हुए अनुभूत तथ्यों को
अंधेरे बंद कमरे में कल रात
बड़ी देर तक ठहर गई थी रात
अकुलाती, दर्द भरी, रतजगी
आस्था रह न गई
ख़्यालों के अनबूझे ब्रह्माण्ड में
छटपटाती छिपी हुई कोई गहरी पहचान
भोर से पहले रात की अंतिम-दम चीखें
अन्धकार भरे अम्बर में जीवन्त पीड़ा
ऐसे में हमारे निजी अनुभूत तथ्यों ने
लिख कर…
ContinueAdded by vijay nikore on June 15, 2016 at 1:55am — 18 Comments
दर्द मेरी कविता में नहीं है ... दर्द मेरी कविता है।
दर्द के भाव में बहाव है, केवल बहाव, .. कोई तट नहीं है, कोई हाशिया नहीं है जो उसकी रुकावट बने।
पत्तों से बारिश की बूँदों को टपकते देख यह आलेख कुछ वैसे ही अचानक जन्मा जैसे मेरी प्रत्येक कविता का जन्म अचानक हुआ है। कोई खयाल, कोई भाव, कोई दर्द दिल को दहला देता है, और भीतर कहीं गहरे में कविता की पंक्तियाँ उतर आती हैं।
दर्द एक नहीं होता, और प्राय: अकेला नहीं आता। समय-असमय हम नए, “और” नए, दर्द झोली…
ContinueAdded by vijay nikore on June 9, 2016 at 9:49am — 3 Comments
पुण्य-तिथि
(२७ वर्ष उपरान्त भी लगता है ... माँ अभी गई हैं, अभी लौट आएँगी)
माँ ...
रा्तों में उलझे ख्यालों के भंवर में, या
रंगीले रहस्यमय रेखाचित्रों की ओट में
कभी चुप-सी चाँदनी की किरणों में
श्रद्धा के द्वार पर धुली आकृतिओं में
सरल निडर असीम आत्मीय आकृति
माँ की खिलखिलाती मुसकाती छवि
समृतिओं के दरख़तों की सुकुमार छायाएँ
स्नेह की धूप का उष्मापूरित चुम्बन
मेरे कंधे पर तुम्हारा स्नेहिल हाथ…
Added by vijay nikore on May 8, 2016 at 1:30pm — 31 Comments
चिन्तामग्न
तुमसे मिलने पर
और तुमसे न मिलने पर भी
काँपते हुए, डरे हुए
पिघलते हुए प्रश्न
व्यथाओं की उलझन के अंतर्वर्ती विस्तार में
दर्दीली रातों में द्वंद्व की आड़ी-टेड़ी…
ContinueAdded by vijay nikore on April 25, 2016 at 1:30pm — 6 Comments
Added by vijay nikore on April 3, 2016 at 8:00pm — 12 Comments
पूरा अधूरा वायदा
शब्दों के अभाव में कहे-अनकहे के
कढ़वे अन्तराल में
पार्क में पत्थर के बैंच को साक्षी बना
आसान था कितना
हम दोनों का अलविदा के समय कह देना ...
" हो सके तो भूल जाना तुम मुझको "
" तुम भी ..."
उस शाम के मेघों की वाणी में कुछ था, कुछ कहा
अत: वायदा वह पूरा हो न सका, न तुमसे, न मुझसे
रुँधी हुई ज़िन्दगी में भुलाने के असफ़ल प्रयास में
स्मृतिओं के धुँआते खंडहर के…
ContinueAdded by vijay nikore on March 13, 2016 at 6:35am — No Comments
दर्द भरी गहरी पुकार
हमारा रिश्ता
एक ढहा हुआ मकान ...
तुम बदले
तुम्हारे इमान बदले
मेरे सवाल, और
तुम्हारे उन सवालों के जवाब बदले
सुना है
इमान का अपना
अनोखा चेहरा होता है
सूर्य की किरणों-सा अरुणित
बर्फ़ीली दिशाओं को पिघलाता
आसमान को भी पास ले आता है
उसी अरुणता को
अपने "आसमान " को
तुम्हारे इमान को
मैं तुम्हारी आँखों में देखती…
ContinueAdded by vijay nikore on January 31, 2016 at 7:11am — 12 Comments
पिघली हुई आँच
कुछ ऐसी ही
पीली उदासीन संध्याएँ
पहले भी आई तो थीं
पर वह जलती हुई भाफ लिए
इतनी कष्टमयी तो न थीं
दिल से जुड़े, चंगुल में फंसे हुए
द्व्न्द्व्शील असंगत फ़ैसलों पर तब
"हाँ" या "न" की कोई पाबंदी न थी
"जीने" या "न जीने" का
साँसों में हर दम कोई सवाल न था
अनवस्थ अनन्त अकेलापन
तब भी चला आता था
पर वह दिल के किसी कोने में दानव-सा
प्रतिपल बसा नहीं रहता…
ContinueAdded by vijay nikore on December 21, 2015 at 3:58am — 8 Comments
कहने को दोस्त हैं बहुत
लेकिन दोस्त,
सच में
तुम ही "एक" दोस्त थी मेरी
अपरिभाषित दिशाओं के पट खोल
सुविकसित कल्पनाओं को बहती हवाओं में घोल
मुझको अँधियाले ताल के तल से
प्रसन्नता की नभचुम्बी चोटी पर ले गई थी
वह तुम ही तो थी
हर हाल में मुझको
लगती थी अपनी
इतनी
कि मैं पैरों के घिसे हुए तलवों को
मन की फटी हुई चादर की सलवटों को
दिखाने में संकोच नहीं करता था...
सवाल ही नहीं उठता…
ContinueAdded by vijay nikore on December 13, 2015 at 9:17am — 12 Comments
आरोह-अवरोह
कभी-कभी ... कभी कभी
आत्म-चेतन अंधेरे में ख़यालों के जंगल में
रुँधे हुए, सिमटे हुए, डरे-डरे
चुन रहा हूँ मानो अंतिम संस्कार के बाद
झुठलाती-झूठी ज़िन्दगी के फूल
और सौ-सौ प्रहरी-से खड़े आशंका के शूल
दो टूक हुई आस्था की काँट-छाँट
अच्छे-बुरे तजुर्बे बेपहचाने
पावन संकल्प, पुण्य और पाप
पानी और तेल और राख
कितना कठिन है प्रथक करना
सही और गलत के तर्क से ओझल हो कर
कठिन है…
ContinueAdded by vijay nikore on August 17, 2015 at 3:30pm — 12 Comments
परिणति पीड़ा
रिश्ते के हर कदम पर, हर चौराहे पर
हर पल
भटकते कदम पर भी
मेरे उस पल की सच्चाई थी तुम
जिस-जिस पल वहीं कहीं पास थी तुम
जीवन-यथार्थ की कठिन सच्चाइयों के बीच भी
खुश था बहुत, बहुत खुश था मैं
पर अजीब थी ज़िन्दगी वह तुम्हारे संग
स्नेह की ममतामयी छाओं के पीछे भी मुझमें
था कोई अमंगल भ्रम
भीतरी परतों की सतहों में हो जैसे
अन-चुकाये कर्ज़ का कंधों पर भार
तुमसे कह न सका पर इतनी…
ContinueAdded by vijay nikore on August 16, 2015 at 5:30pm — 30 Comments
नीरवताएँ
दुखपूर्ण भावों से भीतर छिन्न-भिन्न
साँस-साँस में लिए कोई दर्दीली उलझन
मेरे प्राण-रत्न, प्रेरणा के स्रोत
तुम कुछ कहो न कहो पर जानती हूँ मैं
किसी रहस्यमय हादसे से दिल में तुम्हारे
है अखंडित वेदना भीषण
चोट गहरी है
दुख का पहाड़ है
दुख में तुम्हारे .. तुम्हारे लिए
दुख मुझको भी है
रंज है मुझको कि संवेदन-प्रेरित भी
मैं कुछ कर नहीं पाती
खुले रिसते घाव को तुम्हारे
सी नहीं…
ContinueAdded by vijay nikore on July 15, 2015 at 3:30am — 14 Comments
निशान !
लगभग ५३ वर्ष हुए जब "धर्मयुग" साप्ताहिक पत्रिका के पन्ने पलटते हुए किसी अदृश्य शक्ति नें अचानक मुझको रोक लिया, और मुझे लगा कि मेरी अंगुलियों में किसी एक पन्ने को पलटने की क्षमता न थी।
आँखें उस एक पन्ने पर देर तक टिकी रहीं, और मात्र ८ पंक्तियों की एक छोटी-सी कविता को छोड़ न सकीं। वह कविता थी "निशान" जो ५३ वर्ष से आज तक मेरे स्मृति-पटल पर छाई रही है, और जिसे मैं अभी भी अपने परम मित्रों से आए-गए साझा करता हूँ .....
…
ContinueAdded by vijay nikore on July 8, 2015 at 9:02pm — 24 Comments
स्याह धब्बा
ढलते सूरज-से रिश्ते की बुझती लालिमा
सिकुड़ती सिमटती जा रही
अनकही बातों के अरमानों की
अप्राकृतिक अकुलाहट
अपने ही कानों में भयानक
दुर्घटना-सी…
ContinueAdded by vijay nikore on June 15, 2015 at 8:41am — 24 Comments
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