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MUKESH SRIVASTAVA's Blog (33)

साँझ होते ही सो जाता हूँ अतीत की चादर ओढ़ कर,

साँझ होते ही

सो जाता हूँ

अतीत की चादर

ओढ़ कर,

बेसुध

न जाने कब

चादर विरल होने लगती है

इतनी विरल कि

चादर तब्दील हो जाती है

एक खूबसूरत बाग़ में

जिसमे तुम मुस्कुराती हो

फूल बन कर

और मै मंडराता हूँ

भँवरे सा

तुम इठलाती,

इतराती रात भर,

तो कभी ऐसा भी हुआ

जब मै बृक्ष बन उग आता हूँ

और तुम, बेल बन लिपट जाती हो

मै हँसता हूँ तुम मुस्कुराती हो

फिर तुम चाँद बन जाती हो

और मै - चकोर

और मै लगाने लगता…

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Added by MUKESH SRIVASTAVA on November 25, 2014 at 5:00pm — 9 Comments

मेरे पास, थोडे से बीज हैं

मेरे पास,

थोडे से बीज हैं

जिन्हे मै छींट आता हूं,

कई कई जगहों पे



जैसे,



इन पत्थरों पे,

जहां जानता हूं

कोई बीज न अंकुआयेगा

फिर भी छींट देता हूं कुछ बीज

इस उम्मीद से, शायद

इन पत्थरों की दरारों से

नमी और मिटटी लेकर

कभी तो कोई बीज अंकुआएगा

और बनजायेगा बटबृक्ष

इन पत्थरों के बीच



कुछ बीज छींट आया हूं

उस धरती पे,

जहां काई किसान हल नही चलाता

और अंकुआए पौधों को

बिजूका गाड़ कर

परिंदो से…

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Added by MUKESH SRIVASTAVA on November 20, 2014 at 3:00pm — 14 Comments

आईना तो सच दिखा रहा था

आईना तो

सच दिखा रहा था

जाला,

हमारी ही आखों में था



दुनिया जिसे

बेदाग़ समझती रही

धब्बा,

उसी केे दामन में था



वो बहुत पहले की बात है

जब लोग

दो रोटी और दो लंगोटी में

खुश रहा करते थे



तुम

ये जो राजपथ देखते हो

कभी वहां पगडंडी

हुआ करती थी

और एक

छांवदार पेड भी हुआ करता था



ये तब की बात है

जब लोग

धन में नही धर्म में

आस्था रखा करते थे



खैर छोडो मुकेश बाबू

इन बातों…

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Added by MUKESH SRIVASTAVA on November 17, 2014 at 11:00am — 10 Comments

वो घर ग़मज़दा था

वो घर ग़मज़दा था
ग़म का मैक़दा था

कुछ चिंगारियां थी
बाकी तो धुंआ था

हवा की सरसराहट
अजब सन्नाटा था

दरो दीवार सीली थी
वो रात भर रोया था

शक इक वज़ह थी
घर बिखर गया था
.
मुकेश इलाहाबादी ---

मौलिक/अप्रकाशित

Added by MUKESH SRIVASTAVA on July 13, 2014 at 11:00pm — 8 Comments

मेरे वज़ूद की ज़मीं पे

मेरे वज़ूद की
ज़मीं पे
उग आये हैं
यादों के तमाम
कैक्टस और बबूल
जो लम्हा - लम्हा
छलनी करते जा रहे हैं
मेरे जिस्मो जाँ को

और अब

मेरे जिस्म पे
छप गयी है
नीली स्याही से
एक उदास नज़्म
किसी गोदने की तरह

जो मेरी,
पहचान बनती जा रही है

मुकेश इलाहाबादी -----
(मौलिक/अप्रकाशित)

Added by MUKESH SRIVASTAVA on June 22, 2014 at 5:00pm — 10 Comments

खामोश दरिया

एक ---



मेरे, उसके बीच

बहता है

एक खामोश दरिया

जिस पे कोई पुल नहीं है

चाहूँ तो

शब्दों के खम्बो

वादों के फट्टों का

पुल खड़ा कर सकता हूँ

मगर

मुझे अच्छा लगता है

दरिया में

उतारना खामोशी से

और फिर

डूबते उतरते

उतर जाना उस पार



दो ----



अनवरत

चल रहा हूँ

नापता

शब्दों की सड़क

ताकि पहुंच सकूँ

अंतिम छोर तक

कूद जाने के लिए

एक खामोश समंदर में

हमेशा हमेशा के…

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Added by MUKESH SRIVASTAVA on May 27, 2014 at 5:30pm — 10 Comments

पहाड़ और स्नो व्हाइट

(बर्फ सी उजली व नीली ऑखों वाली नील मैम को   यह कहानी नज़र करता हूं। जो तन व मन से खूबसूरत तो हैं ही, और जिनकी खूबसूरत उंगलियां  पत्थरों मे भी जान ड़ाल देती हैं। जिन्हें आज भी कामशेत पूणे की वादियों में देखा जा सकता है। उन्ही की जिंदगी से यह कहानी चुरायी है।’)

             

आज भी - दिवाकर अपने सातों  रंग समेट मेज पे पसरा है । पहाड़ खिला है । हरे, भूरे, मटमैले रंगो मे अपनी पूरी भव्यता के साथ । रोज सा। मानो सातो रंग छिटक दिये गये हों एक एक कर। इंद्र धनुष…

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Added by MUKESH SRIVASTAVA on May 4, 2014 at 1:30pm — 6 Comments

रिटायरमेंट

केदार के मरने की खबर सुनते ही एक मिनट को राय साहब चौंके फिर अपने को सामान्य करते हुये बस इतना ही कहा अरे अभी उसी दिन तो आफिस में आया था पेंशन लेने तब तो ठीक ठाक था। ‘हां, रात हार्ट अटैक पड गया अचानक डाक्टर के यहां भी नही ले जा पाया गया’ राय साहब ने कोई जवाब नहीं दिया बस हॉथो से इशरा किय, सब उपर वाले की माया है, और चुपचाप चाय की प्याली के साथ साथ अखबार की खबरों को पढने लगे। खबर क्या पढ रहे थे। इसी बहाने कुछ सोच रहे थे।



चाय खत्म करके राय साहब ने अपनी अलमारी खोल के देखा पचपन हजार…

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Added by MUKESH SRIVASTAVA on May 2, 2014 at 1:30pm — 12 Comments

सन्नाटा

सन्नाटा



एक



सन्नाटा

बुनता है

एक चादर

उदासी की

जिसे

ओढ कर

सो जाता हूं

चुपचाप

रोज

रात के इस

अंधेरे में



दो

अंधेरा

फुसफुसता है

लोरियां कान मे

रात भर

और दे जाता है

एक टोकरा नींद का

जिसे चुन लेते हैं

कुछ भयावह,

व ड़रावने सपने

बुनता है

जिन्हे

सन्नाटा

दिन के उजाले,

रात की चांदनी में



तीन

लिहाजा, चांद से

थोड़ी चांदनी…

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Added by MUKESH SRIVASTAVA on April 27, 2014 at 10:00pm — 8 Comments

जी चाहता है

जी चाहता है,
सभ्यता के
पाँच हज़ार साल
और इससे भी ज़्यादा
लड़ाइयों से अटे -पटे
स्वर्णिम इतिहास पे
उड़ेल दूँ स्याही
फिर
चमकते सूरज को
पैरों तले
रौंद कर
मगरमच्छों व
दरियाईघोड़ों से अटे - पटे
गहरे, नीले समुद्र में
नमक का पुतला बन घुल जाऊं
और फिर
हरहराऊँ - सुनामी की तरह
देर तक
दूर तक

मुकेश इलाहाबादी ----

मौलिक अप्रकाशित

Added by MUKESH SRIVASTAVA on April 27, 2014 at 10:00pm — 10 Comments

आत्मा अमर है

आत्मा अमर है
जीवन नश्वर है

संसार कुरक्षेत्र
जीवर समर है

कल क्या होगा,
किसे खबर है ?

ज्ञान ही अमृत
अज्ञान ज़हर है

श्रद्धा से देख तू
कण-२ ईश्वर है

मुकेश इलाहाबादी ---

(मौलिक और अप्रकाशित)

Added by MUKESH SRIVASTAVA on March 9, 2014 at 11:30am — 7 Comments

सुना है मैने वसंत आ गया है

सुना है मैने वसंत आ गया है। पेडों पे नये पत्ते बौर और आम्रकुजों मे अमराइंया आ गयी है। कोयलें कभी मुंडेर पे तो कभी डालियों पे कुहुकने लगी हैं। विरहणियां सजन के बिना एक बार फिर हुमगने लगी हैं। सखियां हाथों मे मेहंदी लगा के झूला झूलने लगी हैं। कवियों के मन मे भावों के नव पल्लव लहलाहाने लगे हैं। हवाएं इठलाने लगी हैं। घटाएं मचलने लगी है। साजिंदे अपने साज सजाने लगे हैं गवइये कभी राग विरह तो कभी राग सयोंग गाते हुए कभी उठान पे तो कभी सम पे आने लगे हैं। हर तरफ लोग हर्षों उल्लस मनाने लगे है। ऐसा ही सब…

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Added by MUKESH SRIVASTAVA on February 11, 2014 at 12:00pm — 4 Comments

परती धरती और पहली बारिश (कहानी) - मुकेश इलाहाबादी

परती धरती और पहली बारिश



बारिश की हल्की हल्की बूंदो के गिरते ही लगा बरसों की परती पडी धरती थरथरा उठी हो। माटी की पोर पोर से भीनी भीनी सुगंध चारों ओर अद्रष्य रुप से व्याप्त हो गयी थी। लॉन से आ रही हरसिंगार, मोगरा, गुड़हल और चमेली की खुषबू को संध्या अपने नथूनों में ही नही महसूस कर रही थी बल्कि अपनी संदीली काया के रोम रोम में सिहरन सा महसूस कर रही थी। बेहद तपन के बाद बारिष के मौसम की तरह वह अपने अंदर आये इस बदलाव से वह अंजान नही थी। पर उम्र के इस…

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Added by MUKESH SRIVASTAVA on February 10, 2014 at 2:00pm — 1 Comment

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