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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s Blog (484)

जिसके पुरखे भटकाने की - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल)

२२२२/२२२२/२२२२/२२२



ये मत समझो मान के अपना गले लगाने आया है

जीवन में  खुशियाँ  कैसे  हैं  भेद  चुराने  आया है।१।

**

अनहोनी सी लगती मुझको अब कुछ होने वाली है

नदिया के तट आज समन्दर प्यास बुझाने आया है।२।

**

जिसके पुरखे भटकाने की रोटी खाया करते थे

वो कहता है आज देश को राह दिखाने आया है।३।

**

जिस बस्ती को दसकों पहले हमने खूब सदाएँ दी

उस बस्ती को सूरज  देखो  आज जगाने आया है।४।

**

अपने हिस्से तूफाँ तो थे माझी भी क्या खूब…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 14, 2020 at 7:28am — 10 Comments

तू भी निजाम नित नया मत अब कमाल कर - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/२२२/१२१२

पर्दा सलीके से बहुत मकसद पे डाल कर

वो लाये सबको देखिए घर से निकाल कर।१।

कितना किया अहित है यूँ अपने ही देश का

लोगों ने उसके नाम  पर  पत्थर उछाल कर।२।

वंशज  उन्हीं  के  कर  रहे  जर्जर  इसे यहाँ

रखना जो कह गये थे ये कश्ती सँभाल कर।३।

कर्तब तेरे  किसी  को  यूँ  आते  समझ  नहीं

तू भी निजाम नित नया मत अब कमाल कर।४।

कर  ली  है  पाँच   साल  यूँ   नेतागरी  बहुत

बच्चों सरीखा…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 8, 2020 at 4:26pm — 11 Comments

माग रहे हैं तोड़ के घर को -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'( गजल)

२२२२/२२२२/२२२२/२२२



छोड़ गये थे केवट जिन को तूफानी मझधारों पर

साहिल वालो उनसे पूछो क्या बीती दुखियारों पर।१।



हम  जैसों  की  मजबूरी  थी  हालातों  के  मारे थे

कहने वाले खुदा स्वयम् को नाचे खूब इशारों पर।२।



आग जलाकर मजहब की नित सबने जो तैयार किये

सच  में  हर  पल  देश  हमारा  बैठा  उन  अंगारों पर।३।



माग रहे हैं तोड़ के घर को नित…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 5, 2020 at 4:55am — 10 Comments

रखकर वतन को आपने काँटों की सेज पर - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'( गजल)

२२१/२१२१/२२२/१२१२



मिट्टी को जिसने देश की चन्दन बना लिया

जीवन को उसने हर तरह पावन बना लिया।१।



करते नमन हैं  उस को  नित छोटा भले सही

जिसने भी अपना सन्त सा यौवन बना लिया।२।



कहते  हैं  राह रच  के  ही  रहजन  हुए  मगर

अब तो वही है जिसने पथ भटकन बना लिया।३।



साधन हो साध्य से अधिक पावन ये रीत थी

पर अब फरेब  झूठ  को  साधन बना लिया।४।



जो उम्र पढ़ने लिखने की पत्थर हैं हाथ में

कैसा सुलगता देश का बचपन बना…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 3, 2020 at 6:32am — 4 Comments

भूख गरीबी जाति धर्म से लड़ना नूतन साल यहाँ - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२२२/२२२२/२२२२/२२२

बर्षों  से  जब  रहते  आये  दुख  से  मालामाल  यहाँ

सुख आकर भी कर पायेगा फिर कितना कंगाल यहाँ।।



तुम रख लेना शायद तुमको उम्मीदों का साल मिले

हमने तो हर पल  है  खोया  उम्मीदों का साल यहाँ।।



शीष झुकाये रहे सहिष्णुता जैसे सब की दोषी हो

खूब मजहबी झगड़े रहते ताने अब तो भाल यहाँ।।



साल नया कितनी उम्मीदें…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 1, 2020 at 5:51am — 10 Comments

नव वर्ष के दोहे - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

सँस्कार की  नींव  हो, उन्नति  का प्रासाद

मन की ही बंदिश रहे, मन से हों आजाद।१।



लगे न बीते साल  सा, तन मन कोई घाव

राजनीति ना भर सके, जन में नया दुराव।२।



धन की बरकत ले धनी, निर्धन हो धनवान

शक्तिहीन अन्याय  हो, न्याय बने बलवान।३।



घर आँगन सबके खिलें, प्रीत प्यार के फूल

और जले नव वर्ष मेें, हर नफरत का शूल।४।



मदिरा में ना डूब कर, भजन करें भर रात

नये साल  की  दोस्तों, ऐसे  हो  शुरुआत।५।



स्नेह संयम विश्वास का,…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 31, 2019 at 6:12am — 16 Comments

खिले फूलों के रंगों ने - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'( गजल )

१२२२/१२२२/१२२२/१२२२



समय ने हद से बढ़ के जब नयी मजबूरियाँ दी हैं

उन्हीं मजबूरियों ने  ही  तनिक  चालाकियाँ दी हैं।१।



सफर में  राह  ने  काँटे  उगाये  पाँव  बेबस कर

मगर इक  हौसले  ने  ही  कई  बैशाखियाँ दी हैं।२।



बढ़ाया हाथ भी ठिठका कहा भौंरे ने जब इतना

खिले फूलों के रंगों ने चमन को तितलियाँ दी हैं।३।



भुला बैठे हैं सब  शायद  यही …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 17, 2019 at 8:29pm — 8 Comments

कठिन बस वासना से पार पाना है-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'( गजल )

१२२२/१२२२/१२२२



अमरता देवताओं  का  खजाना है

मनुज तूने कभी उसको न पाना है।१।



यहाँ मुँह तो  बहुत  पर  एक दाना है

लिखा जिसके उसी के हाथ आना है।२।



सरल है चाँद तारों को विजित करना

कठिन बस  वासना  से  पार पाना है।३।



रही है धर्म  की  ऊँची  ध्वजा  सब से

उसी पर अब सियासत का निशाना है।४।



व्यवस्था जन्म से लँगड़ी बुढ़ापे तक

उसी के दम यहाँ पर न्याय काना है।५।



जला पुतला  निभा  दस्तूर देते हैं

भला लंकेश को…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 7, 2019 at 10:59am — 4 Comments

सदमे में है बेटियाँ चुप बैठे हैं बाप - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

आदम युग से आज तक, नर बदला क्या खास

बुझी  वासना  की  नहीं, जीवन  पीकर  प्यास।१।



जिसको होना राम था, कीचक बन तैयार

पन्जों से उसके भला, बचे कहाँ तक नार।२।



तन से बढ़कर हो गयी, इस युग मन की भूख

हुए  सभ्य  जन  भेड़िए, बिसरा  सभी  रसूख।३।



तन पर मन की भूख जब, होकर चले सवार

करती है वो  नार  की, नित्य  लाज  पर वार।४।



बेटी गुमसुम सोच ये, कैसा सभ्य विकास

हरमों से बाहर निकल, रेप आ…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 4, 2019 at 8:30pm — 5 Comments

मन की बात - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

दोहे

तोड़ो चुप्पी और फिर, कह दो मन की बात

व्याकुल तपती देह पर, हो सुख की बरसात।१।



लाज शरम चौपाल की, यू मत करो किलोल

जो भी मन की बात हो, अँखियों से दो बोल।२।



मन से मन की बातकर, कम कर लो हर पीर

बाँध  रखो  मत  गाँठ  में, दुख  देगा  गम्भीर।३।



मन से निकलेगी अगर, दुखिया मन की बात

जो भी  शोषक  जन  रहे, देगी  ढब  आधात।४।



कहना मन की बात नित, करके सोच विचार

जोड़े  यह  व्यवहार  को, तोड़े  यह …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 28, 2019 at 6:00am — 10 Comments

लम्हों की तितलियाँ - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर ' ( गजल )

२२१/२१२१/२२२/१२१२



धन से न आप तोलिए लम्हों की तितलियाँ

कहना फजूल खोलिए लम्हों की तितलियाँ।१।

****

उड़ती हैं आसपास नित सबके मचल - मचल

पकड़ी हैं किस ने बोलिए लम्हों की तितलियाँ।२।

****

सुनते  जमाना  उन  का ही  होता  रहा  सदा

फिरते हैं साथ जो  लिए लम्हों की तितलियाँ।३।

****

किस्मत हैं लाए  साथ  में  तुमसे ही ब्याहने

कहती हैं द्वार खोलिए लम्हों की तितलियाँ।४।

****

जिसने न खोला  द्वार  फिर आती कभी नहीं

कितना भी चाहे रो लिए…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 25, 2019 at 5:24am — 14 Comments

शाम के दोहे - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

जले दिवस भर धूप में, चलते - चलते पाँव

क्यों ओ! प्यारी शाम तुम, जा बैठी हो गाँव।१।

रोज शाम को झील पर, आओ प्यारी शाम

गोद तुम्हारी सिर रखूँ, कर लूँ कुछ आराम।२।

जब तक हो यूँ पास में, तुम ओ! प्यारी शाम

थकन भरे हर पाँव को, मिल जाता आराम।३।

बेघर पन्छी डाल पर, बैठा है उस पार

आयी प्यारी शाम है, खोलो कोई द्वार।४।

कितनी प्यारी शाम है, इत उत फैली छाँव

निकले चादर छोड़ कर, जी बहलाने पाँव।५।

आयी प्यारी शाम…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 19, 2019 at 6:00am — 10 Comments

भिड़े प्रहरी न्याय के - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

दोहे

भिड़े प्रहरी न्याय के, लेकर निज अभिमान

मुसमुस जनता हँस रही, ले इस पर संज्ञान।१।



खाकी का ईमान क्या, बिकता काला कोट

वह नेता भी भ्रष्ट है, जन दे जिसको वोट।२।



लूट पीट जन आम को, करें न्याय का खून

खाकी, काला कोट खुद, बन बैठे कानून।३।



खाकी, काले कोट को, है इतना अभिमान

आम नागरिक कब भला, हैं इनको इन्सान।४।



रहा न जिनका आचरण, जैसा सूप सुभाय

वही  सुरक्षा  माँगते, वही  कह  रहे  न्याय।५।



काली वर्दी पड़ गयी,…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 7, 2019 at 8:09pm — 12 Comments

पंक की कर मन्च  से आलोचना - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२१२२/२१२२/२१२



याद बीते कल का वो सुख क्यों करें

ऐसे दूना  अपना  ही  दुख  क्यों करें।१।



पंक की कर मन्च  से आलोचना

और गँदला बोलिए मुख क्यों करें।२।



छोड़  दुत्कारों  से  आये  तब  भला

उनके घर की ओर आमुख क्यों करें।३।



एक भी छाता  न  हो जिस शह्र में

बारिशें उस शह्र का रूख क्यों करें।४।



इसकी उनके  पास  में  जब  ना दवा…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 2, 2019 at 5:07pm — 2 Comments

गजल - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/ २१२१/ २२२/१२१२



रस्ते सभी जहाँ के ढब आसान जिंदगी

तू ही उलझ के रह गयी नादान जिंदगी।१।



पानी हवा बहुत  है  यूँ  जीने  के वास्ते

करती इकट्ठा  मौत का सामान जिंदगी।२।



जीवन नहीं करे है तू जीवन सा पर करे

सासों पे झूठ - मूठ का अहसान जिंदगी।३।



क्यूबा बनी सोमालिया, ईराक, सीरिया

कब होगी तू पता नहीं जापान जिन्दगी।४।



देती है उसको मान ढब आती है मौत…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 26, 2019 at 6:54am — 8 Comments

दीप बुझा करते है जिसके चलने पर - गजल( लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर')

२२२२/२२२२/२२२


अश्क पलक से भीतर रखना सीख लिया
गम थे बेढब फिर  भी हँसना सीख लिया।१।


जख्म दिए  हैं  जब से  हँसकर  फूलों ने
काँटों को भी फूल हैं कहना सीख लिया।२।


कदम- कदम  पर  खंजर  रक्खे  अपनों  ने
हम भी शातिर जिन पर चलना सीख लिया।३।


दीप बुझा  करते  है  जिसके चलने पर
उस आँधी से हमने जलना सीख लिया।४।


उनकी कोशिश  थी  पत्थर से अटल रहें
नदिया बनकर हम ने बहना सीख लिया।५।


मौलिक/अप्रकाशित

Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 18, 2019 at 7:29pm — 4 Comments

भला करे कश्मीर का, संशोधित सम्विधान - दोहे ( लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर')

दोहे

***

वो तो बढ़चढ़ बाँटते, नफरत जिसका नाम

जन्नत में  सद्भावना, शेष  वतन  का  काम।१।

****

वैसे तो हम सब रहे, विविध रंग के फूल

किन्तु सूख अब हो गये, जैसे तीखे शूल।२।

****

पड़े जंग आतंक की, निसदिन जिन पर मार

उन्हें जिन्दगी फिर लगे, बोलो क्यों ना भार।३।

****

तन से तो अब देश में, बिलय हुआ कश्मीर

मन से भी जब हो  बिलय, बदलेगी तस्वीर।४।

****

बिस्थापित थे जो हुये, समझो उनकी पीर

जा पायें निज  ठाॅ॑व  वो, कश्मीरी…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 12, 2019 at 6:55am — No Comments

गाँव के दोहे - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

गाँव के दोहे

संगत में जब से पड़ा, सभ्य नगर की गाँव

अपना घर वो त्याग कर, चला गैर के ठाँव।१।

***

मिलना जुलना बतकही, पनघट पर थी खूब

सब  अपनापन  मर  गया, मोबाइल  में  डूब।२।

***

बिछी सड़क कंक्रीट की, झुलसे जिसमें पाँव

पीपल कटकर गुम हुये, कौन करे फिर छाँव।३।

**

सेज माल  के  वास्ते, कटे  खेत  खलिहान

जिससे लोगों मिट गयी, गाँवों की पहचान।४।

**

सड़क योजना खा गयी, पगडंडी हर ओर

पहले सी होती  नहीं, अब  गाँवों  की…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 5, 2019 at 8:36am — 10 Comments

दोहे दो जून के - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

कभी किसी को ना करे, भूख यहाँ बेहाल

रोटी सब दो जून की, पाकर हों खुशहाल।१।



मुश्किल  से  दो जून की, रोटी  आती हाथ

खाने को यूँ आज तो, मिल बैठो सब साथ।२।



रोटी को दो जून की, अजब गजब से खेल

इसकी खातिर जग करे, दुश्मन से भी मेल।३।



रोटी को  दो  जून  की, क्या  ना  करते लोग

झूठ ठगी दैहिक व्यसन, सब इसके ही योग।४।



रोटी बिन दो जून की, बिलखाती है भूख

रोटी  पा  दो  जून  की, ढूँढें  लोग  रसूख।५।



सदा भाग्य ने है लिखा,…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 11, 2019 at 4:30pm — 6 Comments

दोहे - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

दोहे



तरुवर  देते  फूल फल, नदिया  देती  नीर

मानव मानव को मगर देता नित क्यों पीर।१।



ओछा मन हद तोड़ता, ओछी नदिया कूल

जैसे चन्दन  से  अधिक, माथे चढ़ती धूल।२।



जो बोता  है  पेड़  इक, बाँटे सबको छाँव

काटे जो वट रात दिन, जलते उसके पाँव।३।



अर्थी, पूजा, प्रीत को, मिले न आगन फूल

इस युग बोने सब लगे, कैक्टस कैर बबूल।४।



मरने पर जिसको रही, गंगाजल की चाह

उसने  गंगा  ओर  की, हर  नाले की राह।५।



जहाँ पसीना…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 18, 2019 at 6:03pm — 8 Comments

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