मंज़िल पे खड़ा हो के सफ़र ढूँढ रहा हूँ
हूँ साए तले फिर भी शजर ढूँढ रहा हूँ
औरों से मफ़र ढूँढूं ये क़िस्मत कहाँ मेरी?
मैं खुद की निगाहों से मफ़र ढूँढ रहा हूँ
दंगे बलात्कार क़त्ल-ओ-खून ही मिले
अख़बार मे खुशियों की खबर ढूँढ रहा हूँ
शोहरत की किताबों के ज़ख़ायर नही मतलूब
जो दिल को सुकूँ दे वो सतर ढूँढ रहा हूँ
ना जाने हक़ीक़त है वहम है की फ़साना
वाक़िफ़ नही मंज़िल से मगर ढूँढ रहा हूँ
ये हिंदू का शहर है…
ContinueAdded by saalim sheikh on September 18, 2013 at 5:32pm — 14 Comments
मुजरिम मैं नहीं पर मुफ़लिसी गोयाई छीन लेती है
दौलत आज भी इन्साफ की बीनाई छीन लेती है
हैं जौहर आज भी मुझ में वही तेवर भी हैं लेकिन
सियासत अब मेरे हाथों से रोशनाई छीन लेती है
नफरत थक गयी दामन मेरा मैला न कर पाई
मोहब्बत मेरे दामन से हर रुसवाई छीन लेती है
यही रहज़न कभी रहबर हुआ करता था बस्ती का
ग़रीबी रंग में आती है तो अच्छाई छीन लेती है
~सालिम शेख
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by saalim sheikh on September 15, 2013 at 10:02pm — 20 Comments
वो जन्नत है,वो रहमत है,वो मेराज-ए-मोहब्बत है
समंदर मेँ कहाँ, जो माँ की ममता में है गहराई
उसी की तरबियत से इस चमन में फूल खिलते हैँ
बिना मरियम के क्या ईसा और ईसा की मसीहाई
-सालिम शेख
मौलिक व अप्रकाशित
Added by saalim sheikh on September 15, 2013 at 10:59am — 5 Comments
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