अद्भुत कला है
बिना कुछ किये
दूजे के कामों को
खुद से किया बताकर
बटोरना वाहवाही...
जो लोग
महरूम हैं इस कला से
वो सिर्फ खटते रहते हैं
किसी बैल की तरह
किसी गधे की तरह
ऐसा मैं नही कहता
ये तो उनका कथन है
जो सिर्फ बजाकर गाल
दूसरों के कियेकामों को
अपना…
ContinueAdded by anwar suhail on May 26, 2013 at 7:49pm — 5 Comments
जिस वक्त कोई
बना रहा होता क़ानून
कर रहा होता बहस
हमारी बेहतरी के लिए
हम छह सौ फिट गहरी
कोयला खदान के अंदर
काट रहे होते हैं कोयला
जिस वक्त कोई
तोड़ रहा होता क़ानून
धाराओं-उपधाराओं की उड़ा-कर धज्जियां
हम पसीने से चिपचिपाते
ढो रहे होते कोयला अपनी पीठ पर..
जिस वक्त कोई
कर रहा होता आंदोलन
व्यवस्था के खिलाफ लामबंद
राजधानियों की व्यस्ततम सड़कों पर
हम हाँफते- दम…
ContinueAdded by anwar suhail on May 22, 2013 at 8:20pm — 3 Comments
कोयला खदान की
आँतों सी उलझी सुरंगों में
पसरा रहता अँधेरे का साम्राज्य
अधपचे भोजन से खनिकर्मी
इन सर्पीली आँतों में
भटकते रहते दिन-रात
चिपचिपे पसीने के साथ...
तम्बाकू और चूने को
हथेली पर मलते
एक-दूजे को खैनी खिलाते
सुरंगों में पिच-पिच थूकते
खानिकर्मी जिस भाषा में बात करते हैं
संभ्रांत समाज उस भाषा को
असंसदीय कहता, अश्लील कहता...
खदान का काम खत्म कर
सतह पर आते वक्त
पूछते अगली शिफ्ट के कामगारों से
ऊपर का…
Added by anwar suhail on May 17, 2013 at 9:30pm — 8 Comments
क्या करें,
इतनी मुश्किलें हैं फिर भी
उसकी महफ़िल में जाकर मुझको
गिडगिडाना नहीं भाता.....
वो जो चापलूसों से घिरे रहता है
वो जो नित नए रंग-रूप धरता है
वो जो सिर्फ हुक्म दिया करता है
वो जो यातनाएँ दे के हंसता है
मैंने चुन ली हैं सजा की राहें
क्योंकि मुझको हर इक चौखट पे
सर झुकाना नहीं आता...
उसके दरबार में रौनक रहती
उसके चारों तरफ सिपाही हैं
हर कोई उसकी इक नज़र का मुरीद
उसके नज़दीक…
ContinueAdded by anwar suhail on May 7, 2013 at 8:21pm — 7 Comments
हम वो नही जो आपकी
चुटकी में मसल जाएँ
हम वो नहीं जो आपके
पैरों से कुचल जाएँ
हम वो नहीं जो आपके
डर से रण छोड़ जाएँ
हम वो नहीं जो आपकी
भभकी से सिहर जाएँ
जुल्मो-सितम की आंधी
यातनाओं के तूफ़ान में भी
देखो तने खड़े हम
किसी पहाड़ की तरह
खुद्दारी और खुद-मुख्तारी
यही तो है पूंजी हमारी...
उन जालिमों के गुर्गे
टट्टू निरे भाड़े के
हथियार छीन लो तो
रण छोड़ भाग…
ContinueAdded by anwar suhail on May 4, 2013 at 8:21pm — 5 Comments
कैसे बन जाता कोई नपुंसक
कैसे हो जाती खामोश जुबान
कैसे हज़ारों सिर झुक जाते
कैसे बढते क़दम रुक जाते
कुंद कर दिया गया दिमाग
पथरा गई हैं संवेदनाएं
किसी साज़िश के तहत
खत्म कर दी गई हैं संभावनाएं
मैंने कहा साथी!
क्या हुआ कि बंद हैं राहें
गूँज रही हर-सू आहें-कराहें
क्या हुआ कि खो गई दिशाएँ
क्या हुआ कि रुक गई हवाएं
याद करो,
हमने खाई थी शपथ
विपरीत परिस्थितियों में
हम झुकेंगे…
ContinueAdded by anwar suhail on May 3, 2013 at 7:57pm — 9 Comments
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