कोकिला क्यों मुझे जगाती है,
तोड़ कर ख्वाब क्यों रुलाती है.
नींद भर के मैं कभी न सोया था,
बेवजह तान क्यों सुनाती है.
चैन की भी नींद भली होती है
मधुर सुर में गीत गुनगुनाती है
बेबस जहाँ में सारे बन्दे हैं
फिर भी तू बाज नहीं आती है
(मौलिक व अप्रकाशित)
- जवाहर लाल सिंह
गजल लिखने की एक और कोशिश, कृपया कमी बताएं
Added by JAWAHAR LAL SINGH on April 22, 2015 at 12:00pm — 12 Comments
खुशी जो हमने बांटी गम कम तो हुआ
हुए बीमार भार तन का कम तो हुआ
माँगी जो हमने कीमत मिली हमें दुआ
उनके बजट का भार कुछ कम तो हुआ
मरहूम हो गए दुःख सहे नही गए
उनके सितम का भार कुछ कम तो हुआ
माना कि मेरे मौला है नाराज इस वकत
फक्र जिनपे था भरोसा कम तो हुआ
मालूम था उन्हें हमसे हैं वो मगर
उनकी नजर में एक ‘मत’ कम तो हुआ
अन्नदाता बार बार कहते है जनाब
भूमि का भागीदार एक कम तो हुआ
(मौलिक व अप्रकाशित)
मैंने गजल…
ContinueAdded by JAWAHAR LAL SINGH on April 15, 2015 at 8:00pm — 15 Comments
कोकिला मुझको जगाती, उठ जा अब तू देर न कर
देर पहले हो चुकी है, अब तो उठ अबेर न कर
उठ के देखो अरुण आभा, तरु शिखर को चूमती है
कूजते खगवृन्द सारे, कह रहे अब देर न कर
उठ के देखो सारे जग में, घोर संकट की घड़ी है
राह कोई भी निकालो, सोच में तू देर न कर
देख कृषकों की फसल को, घोर बृष्टि धो रही है,
अन्नदाता मर रहे हैं, लो बचा तू देर न कर
ईमानदारी साथ मिहनत, फल नहीं मिलता है देखो,
लूटकर धन घर जो लावे, उनके…
ContinueAdded by JAWAHAR LAL SINGH on April 9, 2015 at 3:00pm — 2 Comments
गजल लिखने का प्रयास मात्र है, कृपया सुधारात्मक टिप्पणी से अनुग्रहीत करें
अंदर अंदर रोता हूँ मैं, ऊपर से मुस्काता हूँ,
दर्द में भीगे स्वर हैं मेरे, गीत खुशी के गाता हूँ.
आश लगाये बैठा हूँ मैं, अच्छे दिन अब आएंगे,
करता हूँ मैं सर्विस फिर भी, सर्विस टैक्स चुकाता हूँ.
राम रहीम अल्ला के बन्दे, फर्क नहीं मुझको दिखता,
सबके अंदर एक रूह, फिर किसका खून बहाता हूँ.
रस्ते सबके अलग अलग है, मंजिल लेकिन एक वही,
सेवा करके दीन दुखी का, राह…
Added by JAWAHAR LAL SINGH on April 2, 2015 at 9:30am — 20 Comments
ग्रीष्म में तपता हिमाचल, घोर बृष्टि हो रही
अमृत सा जल बन हलाहल, नष्ट सृष्टि हो रही
काट जंगल घर बनाते, खंडित होता अचल प्रदेश
रे नराधम, बदल डाले, स्वयम ही भू परिवेश
धर बापू का रूप न जाने, किसने लूटा संचित देश
मर्यादा के राम बता दो, धारे हो क्या वेश
मोड़ी धारा नदियों की तो, आयी नदियाँ शहरों में
बहते घर साजो-सामान, हम रात गुजारें पहरों में.
आतुर थे सारे किसान,काटें फसलें तैयार हुई
वर्षा जल ने सपने धोये, फसलें सब बेकार हुई
लुट गए सारे ही…
Added by JAWAHAR LAL SINGH on April 1, 2015 at 11:30am — 19 Comments
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